SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ ] २४९ " श्वतम्, अयमात्मा अद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः आत्मानमेवात्मनोऽनादिजनकमुपसर्पति । अहो इदंजनशरीररमण्या आत्मन, अस्य जनस्यात्मानं न त्वं रमयसीति निश्वयेन त्वं जानीहि तत इममात्मानं विमुञ्च, अयमात्मा अद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः स्वानुभूतिमेवात्मनोऽनादिरमणीमुपसर्पति । अहो इदंजनशरीर पुत्रस्यात्मन् अस्य जनस्यात्मनो न त्वं जन्यो भवसीति निश्चयेन खं जानीहि तत इममात्मानं विमुञ्च, अयमात्मा अद्योनिज्ञानज्योतिः आत्मानमेवात्मनोऽनादिजन्यमुपसर्पति । एवं गुरुकलत्रपुत्रेभ्य आत्मानं विमोचयति । तथा अहो कालविनयोपधानबहुमानानिह्नवार्थव्यञ्जनतदुभयसंपन्नलक्षणज्ञानाचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावच्चत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । अहो निःशङ्कितत्वनिःकाङ्क्षितत्वनिर्विचिकित्सत्वनिर्मूढदृष्टित्वोपबृंहणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनालक्षणदर्शनाचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत् त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुञ्चत यूयमिति क्षमितव्यं करोति । ततश्च किं करोति परमचैतन्यमात्रनिजात्मतत्त्व सर्वप्रकारोपादेयरुचिपरिच्छित्तिनिश्वलानुभूति समस्त परद्रव्येच्छानिवृत्तिलक्षणतपश्चरणस्वशक्त्यनवगूहनवीर्याचाररूपं निश्चयपश्चाचारमाचारादिचरणग्रन्थकथिततत्साधकव्यवहारपञ्चाचारं चाश्रयतीत्यर्थः । अत्र यगोत्रादिभिः सह क्षमितव्यव्याख्यानं कृतं तदत्रातिप्रसंगानिषेधार्थम् । तत्र नियमो नास्ति । कथमिति चेत् । पूर्वकाले प्रचुरेण भरतसगरराम - है । हे जनके शरीरका पुत्र; तू इस जनके आत्मासे नहीं उत्पन्न हुआ, यह निश्वयसे समझ । इस कारण इसमें ममता भाव छोड़, यह आत्मा ज्ञान ज्योतिकर प्रगट हुआ है, इसलिये अपने आत्माका यह आत्मा ही अनादि पुत्र है, और वह उसको प्राप्त होता है । इस प्रकार माता, पिता, स्त्री, पुत्रादि, कुटुम्बसे अपना पीछा छुड़ावे । अथवा जो कोई जीव मुनि होना चाहता है, वह तो सब तरह कुटुम्बसे विरक्तही है, उसको कुटुम्बसे पूँछ का कुछ कार्य ही नहीं रहा, परंतु यदि कुटुम्बसे विरक्त होवे, और जब कुछ कहना पड़े, तब वैराग्यके कारण कुटुम्बके समझानेको इस तरह के वचन निकलते हैं । यहाँपर ऐसा नहीं समझना, कि जो विरक्त होवे, तो कुटुम्बको राजी करके ही होवे । कुटुम्ब यदि किसी तरह राजी न होवे, तब कुटुम्बके भरोसे रहनेसे विरक्त कभी हो ही नहीं सकता। इस कारण कुटुम्बके पूँछनेका नियम नहीं है। जो कभी किसी जीवको मुनि-दशा धारणके समय कुछ कहना ही होवे, तो पूर्वोक्त प्रकार उपदेशरूप वचन निकलते हैं । उस तरह वैराग्यरूप वचनोंको सुनकर जो निकट-संसारी जीव कुटुम्बमें हों, वे भी विरक्त होसकते हैं । तथा इसके बाद सम्यग्दृष्टी जीव अपने स्वरूपको देखता है, जानता है, अनुभव करता है, अन्य समस्त ही व्यवहार भावों से अपनेको भिन्न मानता है, और परभावरूप सभी शुभाशुभ क्रियाओंको हेयरूप जानता है, अंगीकार नहीं करता । लेकिन वही सम्यग्दृष्टी जीव पूर्व बँधे हुए कर्मों के उदयसे अनेक प्रकारके विभाव (विकार) भावस्वरूप परिणमता है, तो भी उन भावोंसे विरक्त है, वह यह जानता है, किं जबतक इस अशुद्ध परिणतिकी स्थिति है, तबतक यह अवश्य होती है, इस कारण आकुलतारूप भाव को भी नहीं प्राप्त होता । यह सम्यग्दृष्टी जीव तो सकल द्रव्य भावरूप विभावभावोंका तभी त्याग पस ३२ Jain Education International प्रवचनसारः For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy