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________________ २१६ . कुन्दकुन्दविरचितः [अ० २, गा० ८२रूपादिरहितो रूपिभिः कर्मपुद्गलैः किल बध्यते । अन्यथा कथममूतों मूतं पश्यति जानाति चेत्यत्रापि पर्यनुयोगस्यानिवार्यवात् । न चैतदत्यन्तदुर्घटखादा न्तिकीकृतं, किंतु दृष्टान्तद्वारेणावालगोपालप्रकटितम् । तथाहि-यथा बालकस्य गोपालकस्य वा पृथगवस्थितं मृगलीवदं बलीवदं वा पश्यतो जानतश्च न बलीवन सहास्ति संबन्धः, विषयभावावस्थितबलीवर्दनिमित्तोपयोगाधिरूढबलीवर्दाकारदर्शनज्ञानसंबन्धो बलीवर्दसंबन्धव्यवहारसाधकस्वस्त्येव, तथा किलात्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यवान कर्मपुद्गलैः सहास्ति संबन्धः, एकावगाहभावावस्थितकर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढरागद्वेषादिभावसंबन्धः कर्मपुद्गलबन्धव्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव ॥ ८२ ॥ रसगन्धस्पर्शसहितानि मूर्तद्रव्याणि । न केवलं द्रव्याणि गुणे य जधा तद्गुणांश्च यथा । अथवा यः कश्चित्संसारी जीवो विशेषभेदज्ञानरहितः सन् काष्ठपाषाणाद्यचेतनजिनप्रतिमां दृष्ट्वा मदीयाराध्योऽयमिति मन्यते । यद्यपि तत्र सत्तावलोकदर्शनेन सह प्रतिमायास्तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथापि परिच्छेद्यपरिच्छेदकलक्षणसंबन्धोऽस्ति । यथा वा समवसरणे प्रत्यक्षजिनेश्वरं दृष्ट्वा विशेषभेदज्ञानी मन्यते मदीयाराध्योऽयमिति । तत्रापि यद्यप्यवलोकनज्ञानस्य जिनेश्वरेण सह तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथाप्याराध्याराधकसंबन्धोऽस्ति । तह बंधो तेण जाणीहि तथा बन्धं तेनैव दृष्टान्तेन जानीहि । अयमत्रार्थ:-यद्यप्ययमात्मा निश्चयेनामूर्तस्तथाप्यनादिकर्मबन्धवशाद्वयवहारेण मूर्तः सन् द्रव्यबन्धनिमित्तभूतं रागादिविकल्परूपं भावबन्धोपयोगं करोति । तस्मिन्सति मूर्तदव्यकर्मणा सह यद्यपि तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथापि पूर्वोक्तदृष्टान्तेन संश्लेषसंवधोऽस्तीति नास्ति दोषः ॥ ८२ ॥ एवं शुद्धबुद्धैकस्वभावजीवकथनमुख्यत्वेन प्रथमगाथा । मूर्तिरहितएक बालक मिट्टीके वलय (कंकण) को अपना समझकर देखता है, जानता है, मानता है, परंतु वह वलय उस बालकसे जुदा है, कुछ संबंध नहीं है, तो भी जो उस कंकगको कोई तोड़ डाले, फोड़ डाले, अथवा लेजावे, तो वह बालक अति दुःखी होता है, और इसी तरह ग्वालिया सच्चे कंकणको अपना समझ कर देखता है, जानता है, मानता है, सच्चा वलय भी उस ग्वालियेसे जुदा है-उस वलयसे कुछ . संबंध नहीं है, तो भी उस सच्चे वलयको जो कोई तोड़ डाले, अथवा लेजावे, तो ग्वालिया भी अति दुःखी होता है । इस जगह विचारना चाहिये, कि माटीका वलय और सच्चा वलय दोनों बाल गोपालसे जुदे हैं, उनके जानेसे-टूटने फूटनेसे बालक और ग्वालिया क्यों दुःखी होते हैं। इससे यह बात विचारमें आती है, कि वे बाल गोपाल उन वलयोंको अपना मानकर देखते हैं, जानते हैं। इस कारण अपने परिणामोंसे बंध रहे हैं, उनका ज्ञान वलयके निमित्तसे तदाकार परिणत हो रहा है । इसलिये परस्वरूप वलयोसे संबंधका व्यवहार आजाता है। उसी प्रकार इस आत्माका पुद्गलसे कुछ संबंध नहीं है, परंतु अनादिकालसे लेकर एक क्षेत्रावगाहकर ठहरे हुए जो पुद्गल हैं, उनका निमित्त पाकर उत्पन्न हुआ जो राग, द्वेष, मोहरूप अशुद्धोपयोग वही भावबंध है, उसीसे आत्मा बँधा हुआ है, पुद्गलीक कर्मबंध व्यवहारमात्र है । इससे यह बात सिद्ध हुई, कि जो यह आत्मा परद्रव्यको रागी, द्वेषी, मोही, होकर देखता है, जानता है, वही अशुद्धोपयोगरूप परिणाम बंधका कारण है, और अपने ही अशुद्धपरिणामसे बंध है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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