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प्रवचनसारः
२१५ मूर्तयोहि तावत्पुद्गलयो रूपादिगुणयुक्तत्वेन यथोदितस्निग्धरूक्षवस्पर्शविशेषादन्योन्यबन्धोऽवधार्यते एव । आत्मकर्मपुद्गलयोस्तु स कथमवधार्यते । मूर्तस्य कर्मपुद्गलस्य रूपादिगुणयुक्तत्वेन यथोदितस्निग्धरूक्षवस्पर्शविशेषसंभवेऽप्यमूर्तस्यात्मनो रूपादिगुणयुक्तखाभावेन यथोदितस्निग्धरूक्षवस्पर्शविशेषासंभावनया चैकाङ्गविकलखात् ।। ८१ ॥ अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो बन्धो भवतीति सिद्धान्तयति
रूवादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि ख्वमादीणि । दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ॥ ८२ ॥ रूपादिकै रहितः पश्यति जानाति रूपादीनि ।
द्रव्याणि गुणांश्च यथा तथा बन्धस्तेन जानीहि ॥ ८२॥ येन प्रकारेण रूपादिरहितो रूपीणि द्रव्याणि तद्गुणांश्च पश्यति जानाति च, तेनैव प्रकारेण तत्र दोषो नास्ति । कैः कृत्वा । फासेहि अण्णमण्णेहिं स्निग्धरूक्षगुणलक्षणस्पर्शसंयोगैः । किंविशिष्टैः । अन्योन्यैः परस्परनिमित्तः । तबिवरीदो अप्पा बज्झदि किथ पोग्गलं कम्मं तद्विपरीतात्मा बध्नाति कथं पौद्गलं कर्मेति । अयं परमात्मा निर्विकारपरमचैतन्यचमत्कारपरिणतत्वेन बन्धकारणभूतस्निग्धरूक्षगुणस्थानीयद्वेषादिविभावपरिणामरहितत्वादमूर्तवाच्च पौद्गलकर्म कथं बध्नाति न कथमपीति पूर्वपक्षः ॥ ८१ ॥ अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो नयविभागेन बन्धो भवतीति प्रत्युत्तरं ददाति-रूवादिएहिं रहिदो अमूर्तपरमचिज्योतिःपरिणतत्वेन तावदयमात्मा रूपादिरहितः । तथाविधः सन् किं करोति । पेच्छदि जाणादि मुक्तावस्थायां युगपत्परिच्छित्तिरूपसामान्यविशेषग्राहककेवलदर्शनज्ञानोपयोगेन यद्यपि तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथापि ग्राह्यग्राहकलक्षणसंबन्धेन पश्यति जानाति । कानि कर्मतापन्नानि । रूबमादीणि दवाणि रूप[आत्मा] जीवद्रव्य [पौगलिकं कर्म] पुद्गलीक-कर्मवर्गणाओंको [कथं] कैसे [बध्नाति] बाँध सकता है ? भावार्थ-पुद्गलद्रव्य मूर्तीक है, वह अपने स्निग्ध रूक्ष गुणकर आपसमें बँधता है । आत्मा तो अमूर्तीक है, स्निग्ध, रूक्ष गुणसे रहित है, वह कर्मवर्गणासे किस तरह बँध सकता है ? यह बड़ा संशय है, कि एक तरफ तो स्निग्ध, रूक्ष गुण सहित कर्मवर्गणा और दूसरी तरफ स्निग्ध, रूक्ष गुण रहित आत्मा ये दोनों आपसमें किस तरह बंधको प्राप्त हो सकते हैं ? ऐसा शिष्यका प्रश्न है ॥ ८१ ॥ आगे अमूर्त आत्माके भी बंध होता है, ऐसा उत्तर दृष्टान्त द्वारा कहते हैं।-[रूपादिकैः रहितः] रूपादिसे रहित यह आत्मा [यथा] जैसे [रूपादीनि द्रव्याणि] रूपादिगुणोंवाले घट पटादिस्वरूप अनेक पुद्गलद्रव्योंको [च] और [गुणान्] उन द्रव्योंके रूपादिगुणोंको [जानाति] जानता है, [पश्यति] देखता है, [तथा] उसी प्रकार [तेन] पुद्गलद्रव्यके साथ [बन्धं] आत्माका बंध [जानीहि] जानो। भावार्थ-आत्मा अमूर्तीक है, परंतु मूर्तीकद्रव्यका देखने जाननेवाला है। देखना जानना इसका स्वभाव है, उस देखने जाननेसे ही मूर्तीकद्रव्यसे बंध होता है, जो देखता जानता न होता, तो बंध होता। जब देखता जानता है, तभी बंध है। यही बात दृष्टान्तसे दिखलाते हैं जैसे
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