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________________ ५९] प्रवचनसारः अथ पुद्गलमाणसंततिनिवृत्तिहेतुमन्तरङ्गं ग्राहयति १९३ जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि । कम्मे हिं सोण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति ॥ ५९ ॥ य इन्द्रियादिविजयी भूत्वोपयोगमात्मकं ध्यायति । कर्मभिः स न रज्यते कथं तं प्राणा अनुचरन्ति ।। ५९ ।। पुद्गलमाणसंततिनिवृत्तेरन्तरङ्गो हेतुर्हि पौगलिककर्ममूलस्योपरक्तत्वस्याभावः । स तु समस्तेन्द्रियादिपरद्रव्यानुविजयिनो भूत्वा समस्तोपाश्रयानुवृत्तिव्यावृत्तस्य स्फटिकमणेरिवात्यन्तविशुद्धमुपयोगमात्रमात्मानं सुनिश्चलं केवलमधिवसतः स्यात् । इदमत्र तात्पर्यम् - आत्मनोऽत्यन्तविभक्तसिद्धये व्यवहारजीवत्व हेतवः पुद्गलमाणा एवमुच्छेत्तव्याः ॥ ५९ ॥ अथ पुनरस्यात्मनोऽत्यन्तविभक्तवसिद्धये गतिविशिष्टव्यवहारजीवत्व हेतुपर्यांयस्वरूपमुपवर्णयति— अथेन्द्रियादिप्राणानामभ्यन्तरविनाशकारणमावेदयति- जो इंदियादिविजई भवीय यः कर्तातीन्द्रियात्मोत्थसुखामृतसंतोषबलेन जितेन्द्रियत्वेन निः कषायनिर्मलानुभूतिबलेन कषायजयेन पञ्चेन्द्रियादिवीजयीभूत्वा उगमपगं झादि केवलज्ञानदर्शनोपयोगं निजात्मानं ध्यायति कम्मेहिं सो ण रंजदि कर्मभिश्विचमत्कारादात्मनः प्रतिबन्धकैर्ज्ञानावरणादिकर्मभिः स न रज्यते न बध्यते । किह तं पाणा अणुचरंति कर्मबन्धाभावे सति तं पुरुषं प्राणाः कर्तारः कथमनुचरन्ति कथमाश्रयन्ति । न कथमपीति । ततो ज्ञायते कषायेन्द्रियविजय एव पञ्चेन्द्रियादिप्राणानां विनाशकारणमिति ॥ ५९ ॥ एवं 'सपदेसेहिं समग्गो' इत्यादि - गाथाष्टकेन सामान्य भेदभावनाधिकारः समाप्तः । अथानन्तरमेकपञ्चाशद्गाथापर्यन्तं विशेषभेदभावनाधिकारः धारण करता है । इस कारण प्राणोंका अंतरंग कारण जो ममता भाव है, वह सब तरहसे त्यागने योग्य है ॥ ५८ ॥ आगे इन पुद्गलीक प्राणोंकी संतानके नाशका अंतरंग कारण कहते हैं - [ यः ] जो पुरुष [ इन्द्रियादिविजयीभूत्वा ] इंद्रिय कषाय अत्रतादिक विषयोंको जीतनेवाला होकर [आत्मकं ] अपने [उपयोगं] समस्त परभावोंसे भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूपका [ ध्यायति ] एकाग्र चित्त होकर अनुभव करता है, [सः ] वह भेदविज्ञानी [कर्मभिः ] समस्त शुभाशुभकर्मोंसे [न रज्यते ] रागी नहीं होता, [तं] उस महात्माको [ प्राणाः ] संसारसंतानके कारण पुद्गलीक प्राण [ कथं ] किस तरह [अनुचरन्ति ] संबद्ध कर सकते हैं ? किसी तरहसे भी नहीं । भावार्थ- पुद्गल-संतानके अभावका कारण एक वीतरागभाव है । जैसे स्फटिकमणिकी शुद्धताका कारण उसके समीप काली पीली हरी आदि वस्तुका अभाव है, उसी तरह यह आत्मा सकल इंद्रिय विकारोंसे रहित होकर निज स्वरूपमें थिर होनेसे शुद्धस्वरूपको प्राप्त होता है, उसके बाद फिर प्राणधारणरूप दूसरा जन्म नहीं धारण करता । इसलिये इष्ट अनिष्ट पदार्थमें रागभाव त्यागना योग्य है ॥ ५९ ॥ आगे फिर परभावों से जुदा आत्माकों दिखलानेके लिये व्यवहारजीवके चार गतियोंके पर्यायोंका स्वरूप कहते है - [ अस्तित्व प्रव. २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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