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________________ १८० कुन्दकुन्दविरचितः [अ० २, गा०४८आगासमणुणिविटं आगासपदेससण्णया भणिदं । सव्वेसिं च अणूणं सक्कदि तं देदुमवगासं ॥४८॥ आकाशमणुनिविष्टमाकाशप्रदेशसंज्ञया भणितम् ।। सर्वेषां चाशूनां शक्नोति तदातुमवकाशम् ॥४८॥ आकाशस्यैकाणुव्याप्योऽशः किलाकाशप्रदेशः, स खल्वेकोऽपि शेषपञ्चद्रव्यप्रदेशानां परमसौक्ष्मपरिणतानन्तपरमाणुस्कन्धानां चावकाशदानसमर्थः । अस्ति चाविभागैकद्रव्यखेऽप्यंशकल्पनमाकाशस्य, सर्वेषामणूनामवकाशदानस्यान्यथानुपपत्तेः । यदि पुनराकाशस्यांशा न स्युरिति मतिस्तदाङ्गुलीयुगलं नभसि प्रसार्य निरूप्यतां किमेकं क्षेत्रं किमनेकम् । एकं चेकिमभिन्नांशाविभागैकद्रव्यत्वेन किं वा भिन्नांशाविभागैकद्रव्यत्वेन । अभिन्नांशाविभागैकद्रव्यलेन चेत् येनांशेनैकस्या अङ्गुलेः क्षेत्रं तेनांशेनेतरस्या इत्यन्यतरांशाभावः । एवं द्वयायशानामभावादाकाशस्य परमाणोरिव प्रदेशमात्रखम् । भिन्नांशाविभागैकद्रव्यत्वेन चेत् अविभागैकद्रव्यस्यांशआगासमणुणिविठं आकाशम् अणुनिविष्टं पुद्गलपरमाणुव्याप्तम् । आगासपदेससण्णया भणिदं आकाशप्रदेशसंज्ञया भणितं कथितम् । सव्वेसिं च अणूणं सर्वेषामणूनां चकारात्सूक्ष्मस्कन्धानां च सक्कदि तं देदुमवगासं शक्नोति स आकाशप्रदेशो दातुमवकाशम् । तस्याकाशप्रदेशस्य यदीत्थंभूतमवकाशदानसामर्थ्य न भवति तदानन्तानन्तो जीवराशिस्तस्मादप्यनन्तगुणपुद्गलराशिश्चासंख्येयप्रदेशलोके कथमवकाशं लभते । तच्च विस्तरेण पूर्व भणितमेव । अथ मतम् -अखण्डाकाशद्रव्यस्य प्रदेशविभावः कथं घटते । परिहारमाह-चिदानन्दैकस्वभावनिजात्मतत्त्वपरमैकाग्र्यलक्षणसमाधिसंजातनिर्विकाराहादैकरूपसुखसुधारसानिविष्टं] परमाणुसे व्याप्त (रोका गया) जो [आकाशं] आकाशद्रव्य है, वह [आकाशप्रदेशसंज्ञया] आकाशका प्रदेश ऐसे नामसे [भणितं] भगवन्तदेवने कहा है, [तत्] वह आकाशका एक प्रदेश [सर्वेषां] अन्य सब द्रव्योंके प्रदेशोंको [च] और [अणूनां] परमसूक्ष्मपनेको परिणत हुए ऐसे अनंत पुद्गलस्कंधोंको [अवकाशं] जगह [दातुं] देनेको [शक्नोति] समर्थ है। भावार्थजितने आकाशको एक परमाणु रोककर स्थित हो, उतना आकाशनामा प्रदेश है। इससे सूक्ष्म क्षेत्र कोई भी नहीं है, जैसा कि यह प्रदेश सूक्ष्म है, इसमें अन्य अंशोकी कल्पना नहीं होती। तथा उस सूक्ष्म आकाशके प्रदेशमें जगह देनेकी ऐसी ही शक्ति है, कि पाँच द्रव्योंके भी प्रदेश रहते हैं, और अनंत पुद्गल-परमाणु तथा अनंत पुद्गल-स्कंध भी रहते हैं । यह आकाशमें अवगाह (जगह) देनेकी कोई एक ऐसी ही अतिशय महिमायुक्त शक्ति है। यहाँपर कोई प्रश्न करे, कि आकाशद्रव्य तो अखंड एक वस्तु है, उसमें प्रदेशरूप अंश कल्पना कैसे हो सकती है ? उसका समाधान इस तरहसे है, कि निर्विभाग एक वस्तुमें भी अंश कल्पना बन सकती है। यदि ऐसा कहो, कि किस तरहसे होती है ? तो पहले अपने हाथकी दो अंगुली आकाशमें रक्खो, अब बतलाओ, कि दो अंगुलियोंका एक क्षेत्र है, कि दो क्षेत्र ? यदि कहो कि एक क्षेत्र है, तो यह प्रश्न उठता है, कि क्या वह अखंड एक आकाशकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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