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________________ ४९] प्रवचनसारः १८१ कल्पनमायातम् । अनेकं चेत् किं सविभागानेकद्रव्यत्वेन किं वाऽविभागैकद्रव्यत्वेन । सविभागानेकद्रव्यत्वेन चेत् एकद्रव्यस्याकाशस्यानन्तद्रव्यत्वं, अविभागैकद्रव्यत्वेन चेत् अविभागैकद्रव्यस्यांशकल्पनमायातम् ॥४८॥ अथ तिर्यगृर्ध्वप्रचयावावेदयति एको व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य । दव्वाणं च पदेसा संति हि समय त्ति कालस्स ॥ ४९ ॥ एको वा द्वौ बहवः संख्यातीतास्ततोऽनन्ताश्च । द्रव्याणां च प्रदेशाः सन्ति हि समया इति कालस्य ॥ ४९ ॥ प्रदेशपचयो हि तिर्यपचयः समयविशिष्टकृत्तिमचयस्तदूर्ध्वप्रचयः। तत्राकाशस्यावस्थितानन्तप्रदेशखाद्धर्माधर्मयोरवस्थितासंख्येयप्रदेशवाजीवस्यानवस्थितासंख्येयप्रदेशवात्पुद्गलस्य स्वादतृप्तमुनियुगलस्यावस्थितक्षेत्रं किमेकमनेकं वा । यद्येकं तर्हि द्वयोरप्येकत्वं प्राप्नोति न च तथा । भिन्नं चेत्तदा अखण्डस्यप्याकाशद्रव्यप्रदेशविभागो न विरुध्यत इत्यर्थः ॥ ४८ ॥ अथ तिर्यक्प्रचयोर्ध्वप्रचयौ निरूपयति–एको व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य एको वा द्वौ बहवः संख्यातीतास्ततोऽनन्ताश्च । दवाणं च पदेसा संति हि कालद्रव्यं विहाय पञ्चद्रव्याणां संबन्धिन एते प्रदेशा यथासंभवं सन्ति हि स्फुटम् । समय त्ति कालस्स कालस्य पुनः पूर्वोक्तसंख्योपेताः समयाः सन्तीति । तद्यथा-एकाकारपरमसमरसीभावपरिणतपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतभरितावस्थानां केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपानन्तगुणाधारभूतानां लोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयप्रदेशानां मुक्तात्मपदार्थे योऽसौ प्रचयः समूहः समुदायो अपेक्षा एक क्षेत्र है ? यदि ऐसा मानो, तब तो ठीक है, और जो दो अंगुलियोंकी भिन्नतासे दो अंश आकाशके कल्पना करनेपर उनकी अपेक्षा भी एक क्षेत्र कहोगे, तो जिस अंशकर एक अंगुलीका क्षेत्र है, उसी अंशका दूसरी अंगुलीका भी क्षेत्र है, ऐसा माननेसे अन्य अंशोंका अभाव हो जायगा। इसी तरह दो आदि आकाशके अनेक अंशोंकर भिन्न भिन्न ही अनेक अंश मानोगे, तो आकाश अनंत हो जावेंगे, और जो एक आकाशके अनेक अंश मानोगे, तो एक अखंड आकाशमें अंशकल्पना सिद्ध ही है ॥४८॥ आगे तिर्यक्प्रचय, ऊर्ध्वप्रचय इन दोनोंका लक्षण कहते हैं-[द्रव्याणां प्रदेशाः] कालद्रव्यके विना पाँच द्रव्योंके निर्विभाग अंशरूप प्रदेश [एकः] एक [वा] अथवा [द्वौ बहवः] दो अथवा बहुत संख्याते [च] और [संख्यातीताः] असंख्यात [च] तथा [ततः] उसके बाद [अनंताः] अनंत इस तरह यथायोग्य [सन्ति] सदाकाल रहते हैं, [कालस्य] कालद्रव्यका [समय इति] समय पर्यायरूप एक प्रदेश [हि] निश्चयकर जानना चाहिये । भावार्थ-जिन द्रव्योंके बहुत प्रदेश होवें, उन्हें तिर्यक्प्रचय कहते हैं, क्योंकि प्रदेशोंके समूहका नाम तिर्यक्प्रचय है। अनेक समयोंका नाम ऊर्ध्वप्रचय है । सो यह ऊर्ध्वप्रचय सब द्रव्योंके होता है, क्योंकि अतीत, अनागत, वर्तमान, कालके अनेक समयोंमें सब द्रव्य परिणमन करते हैं। तिर्यक्प्रचय एक कालद्रव्यके बिना सबके जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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