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________________ ४२] प्रवचनसारः आकाशस्यावगाहो धर्मद्रव्यस्य गमनहेतुत्वम् । धमैतरद्रव्यस्य तु गुणः पुनः स्थानकारणता ॥ ४१ ॥ कालस्य वर्तना स्यात् गुण उपयोग इति आत्मनो भणितः। ज्ञेयाः संक्षेपागुणा हि मूर्तिमहीणानाम् ॥ ४२ ॥ युगलम् । विशेषगुणो हि युगपत्सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुखमाकाशस्य, सकृत्सर्वेषां गमनपरिणामिनां जीवपुद्गलानां गमनहेतुलं धर्मस्य, सकृत्सर्वेषां स्थानपरिणामिना जीवपुद्गलानां स्थानहेतुखमधर्मस्य, अशेषशेषद्रव्याणां प्रतिपर्यायं समयवृत्तिहेतुवं कालस्य, चैतन्यपरिणामो जीवस्य । एवममूर्तानां विशेषगुणसंक्षेपाधिगमे लिङ्गम् । तत्रैककालमेव सकलद्रव्यसाधारणावगाहसंपादनमसर्वगतलादेव शेषद्रव्याणामसंभवदाकाशमधिगमयति । तथैकवारमेव गतिपरिणतकारणतागुणो भवतीति प्रथमगाथा गता । कालस्य वर्तना स्याद्गुणः ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयमित्यात्मनो गुणो भणितः । एवं संक्षेपादमूर्तद्रव्याणां गुणा ज्ञेया इति । तथाहि-सर्वद्रव्याणां साधारणमवगाहहेतुत्वं विशेषगुणत्वादेवान्यद्रव्याणामसंभवत्सदाकाशं निश्चिनोति । गतिपरिणतसमस्तजीवपुद्गलानामेकसमये साधारणं गमनहेतुत्वं विशेषगुगत्वादेवान्यद्रव्याणामसंभवत्सद्धर्मद्रव्यं निश्चिनोति । तथैव च स्थितिपरिणतसमस्तजीवपुद्गलानामेकसमये साधारणं स्थितिहेतुत्वं विशेषगुणत्वादेवान्यद्रव्याणामसंभवदधर्मद्रव्यं निश्चिनोति । सर्वगमनका कारण ऐसा गतिहेतुत्वनामा विशेष गुण है, [पुनः] तथा [धमतरद्रव्यस्य अधर्मद्रव्यका [गुणः] विशेष गुण [स्थानकारणता] एक ही समय स्थितिभावको परिणत हुए जीव पुद्गलोंको स्थितिका कारणपना है । [कालस्य] कालद्रव्यका [वर्तना] सभी द्रव्योंके समय समय परिणमनकी प्रवृत्तिका कारण ऐसा वर्तना नामका गुण [स्थात् ] है, [आत्मनः गुणः] जीवद्रव्यका विशेष गुण [उपयोगः इति भणितः] चेतना परिणाम है, ऐसा भगवान्ने कहा है । [हि] निश्चयसे [एते गुणाः] पहले कहे जो विशेष गुग हैं, वे [संक्षेपात्] विस्तार न करके थोड़ेमें ही [मूर्तिपहीणानां मूर्तिरहित जो पाँच द्रव्य हैं, उनके [ज्ञेयाः] जानना चाहिये । भावार्थ-अवगाहननामा गुण आकाशद्रव्यका ही चिह्न है, क्योंकि अन्य पाँच द्रव्य हैं, वे सर्व व्यापक नहीं है, आकाश द्रव्य ही सर्वगत (सबमें फैला हुआ) है, इस कारण पाँच द्रव्योंका अवगाह गुण नहीं हो सकता, और आकाश सबका भाजन है, क्योंकि सब द्रव्य इसीमें रहते हैं, इससे इस आकाशका अवगाह चिह्न है, वह गुण होता हुआ आकाशके अस्तिपने (मौजूदगी) को दिखाता है । जीव पुद्गलकी गतिको सहायता करनेवाला गतिहेतुत्वनामा गुण धर्मद्रव्यका ही चिह्न है, अन्य पाँच द्रव्योंका बन नहीं सकता, क्योंकि कालद्रव्य पुद्गल प्रदेशी है, इससे कालपुद्गलका गुण नहीं हो सकता । जो द्रव्य अखंडरूप लोक प्रमाण हो, वही पुद्गलकी सब जगह गतिमें सहायता कर सकता है, और समुद्घातके विना जीवद्रव्य लोकके असंख्यातवें भागमें रहता है, इससे जीवद्रव्यका भी गुण नहीं हो सकता, और आकाशद्रव्य लोकालोकतक है। यदि आकाशका गुण हो, तो जीव पुद्गल अलोकमें गमन कर सकते हैं, सो ऐसा है नहीं । इस कारण आकाशका भी गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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