SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७० । कुन्दकुन्दविरचितः [अ० २, गा० ४०विषयत्वम् । अपां घ्राणेन्द्रियाविषयत्वात् , ज्योतिषो प्राणरसनेन्द्रियाविषयखात् , मरुतो घ्राणरसनचक्षुरिन्द्रियाविषयत्वाच । न चागन्धागन्धरसागन्धरसवर्णाः, एवमब्ज्योतिर्मारुतः, सर्वपुद्गलानां स्पर्शादिचतुष्कोपेतखाभ्युपगमात् । व्यक्तस्पर्शादिचतुष्काणां च चन्द्रकान्तारणियवानामारम्भकैरेव पुद्गलैरव्यक्तगन्धाव्यक्तगन्धरसाव्यक्तगन्धरसवर्णानामज्योतिरुदरमरुतामारम्भदर्शनात् । न च कचित्कस्यचित् गुणस्य व्यक्ताव्यक्तवं कादाचित्कपरिणामवैचित्र्यप्रत्ययं नित्यद्रव्यस्वभावप्रतिघाताय । ततोऽस्तु शब्दः पुद्गलपर्याय एवेति ॥ ४० ॥ अथामृर्तानां शेषद्रव्याणां गुणान् गृणाति आगासस्सवगाहो धम्मदव्वस्स गमणहेदुत्तं । धम्मेदरवस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा ॥४१॥ कालस्स वट्टणा से गुणोवओगो त्ति अप्पणो भणिदो। णेया संखेवादो गुणा हि मुत्तिप्पहीणाणं ॥ ४२ ॥ जुगलं । शब्दः पुद्गलस्य विभावपर्यायो न च गुणः । कस्मात् । गुणस्याविनश्वरत्वात् अयं च विनश्वरो । नैयायिकमतानुसारी कश्चिद्वदत्याकाशगुणोऽयं शब्दः । परिहारमाह-आकाशगुणात्वे सत्यमूर्तो भवति । अमूर्तश्च श्रवणेन्द्रियविषयो न भवति, दृश्यते च श्रवणेन्द्रियविषयत्वम् । शेषेन्द्रियविषयः कस्मान्न भवतीति चेत्अन्येन्द्रियविषयोऽन्येन्द्रियस्य न भवति वस्तुस्वभावादेव रसादिविषयवत् । पुनरपि कथंभूतः । चित्तो चित्रः भाषात्मकाभाषात्मकरूपेण प्रायोगिकवैश्रसिकरूपेण च नानाप्रकारः । तच्च “सदो खंधप्पभवो" इत्यादि गाथायां पश्चास्तिकाये व्याख्यातं तिष्ठत्यत्रालं प्रसंगेन ॥ ४० ॥ अथाकाशाद्यमूर्तद्रव्याणां विशेषगुणान्प्रतिपादयति-आकाशस्यावगाहहेतुत्वं, धर्मद्रव्यस्य गमनहेतुत्वं, धर्मेतरद्रव्यस्य तु पुनः स्थानपुद्गल नहीं है, जो कि स्पर्शादि चार गुणोंमेंसे एक या दो या तीन गुणोंको धारण करे, क्योंकि सभी पुद्गलोंमें चार गुण अवश्य होते हैं । इसका कारण यह है, गुणोंमें कमतीपना नहीं होता है, ऐसी सर्वज्ञकी आज्ञा है । इसलिये पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, इनमें स्पर्शादिक चारों गुण होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। केवल मुख्य गौणका भेद है, वह इस प्रकार है—पृथिवीमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, ये चारों गुण प्रगट पाये जाते हैं, जलमें गंधकी गौणता है, अग्निमें गंध, रस, इन दोनोंकी गौणता है, पवनमें गंध, रस, वर्ण, इन तीनोंकी गौणता हैं । इसलिये सभी पुद्गलोंमें चारों गुण होते हैं । इस बातकी सिद्धिके लिये दूसरी युक्ति भी दिखलाते हैं—चंद्रकांतमणि (पाषाण) पृथिवीकायसे जल झड़ता है, जलसे पृथ्वीकाय मोती उत्पन्न होते हैं, अरणी लकड़ीसे अग्नि उत्पन्न होती है, जो नामक अन्नके खानेसे पेटमें वायु हो जाता है । इस कारण पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुके पुद्गलोंमें भेद नहीं है, केवल परिणमनके भेदसे भेद है । इससे सिद्ध हुआ, कि सभी पुद्गलोंमें स्पर्शादि चार गुण पाये जाते हैं ॥ ४० ॥ आगे अमूर्तीक पाँच द्रव्योंके गुणोंको कहते हैं-आकाशस्य आकाश द्रव्यका [अवगाहः] एक ही समय सब द्रव्योंको जगह देनेका कारण ऐसा अवगाहनामा विशेष गुण है, [तु] और [धर्मस्य] धर्मद्रव्यका [गमनहेतुत्वं] जीव पुद्गलों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy