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________________ ४०] प्रवचनसारः - १६९ शङ्कनीयं, तस्य वैचित्र्यपपश्चितवैश्वरूपस्याप्यनेकद्रव्यात्मकपुद्गलपर्यायवेनाभ्युपगम्यमानखात् । गुणले वा न तावदमूर्तद्रव्यगुणः शब्दः गुणगुणिनोरविभक्तप्रदेशलेनैकवेदनवेद्यखादमूर्तद्रव्यस्यापि श्रवणेन्द्रियविषयखापत्तेः। पर्यायलक्षणेनोत्वातगुणलक्षणखान्मूर्तद्रव्यगुणोऽपि न भवति । पर्यायलक्षणं हि कादाचित्कलं गुणलक्षणं तु नित्यत्वम् । ततः कादाचित्कत्वोत्खातनित्यवस्य न शब्दस्यास्ति गुणवम् । यत्तु तत्र नित्यत्वं तत्तदारम्भकपुद्गलानां तद्गुणानां च स्पर्शादीनामेव न शब्दपर्यायस्येति दृढतरं ग्राह्यम् । न च पुद्गलपर्यायत्वे शब्दस्य पृथिवीस्कन्धस्येव स्पर्शनादीन्द्रियगमगम्यं च, तथा शुद्धपरमाणुद्रव्ये वर्णादिचतुष्टयमप्यतीन्द्रियज्ञानविषयमनुमानगम्यमागमगम्यं च । यथा वानन्तचतुष्टयस्य संसारिजीवे रागादिस्नेहनिमित्तेन कर्मबन्धवशादशुद्धत्वं भवति तथा वर्णादिचतुष्टयस्यापि स्निग्धरूक्षगुणनिमित्तेन द्वयणुकादिबन्धावस्थायामशुद्धत्वम् । यथा वानन्तज्ञानादिचतुष्टयस्य रागादिस्नेहरहितशुद्धात्मध्यानेन शुद्धत्वं भवति तथा वर्णादिचतुष्टयस्यापि स्निग्धगुणाभावे बन्धनेऽसति परमाणुपुद्गलावस्थायां शुद्धत्वमिति । सद्दो सो पोग्गलो यस्तु शब्दः स पौद्गलः यथा जीवस्य नरनारकादिविभावपर्यायाः तथायं कि जिसका कारण इंद्रिय-ग्रहण योग्य न हो, उसका कार्य भी इन्द्रिय-ग्रहण योग्य नहीं हो सकता । यदि शब्द इन्द्रियसे ग्राह्य है, तो अमूर्त आकाश भी कर्ण-इन्द्रियसे ग्राह्य होना चाहिये । शब्द गुण है, गुण-गुणीके प्रदेश कभी जुदे होते नहीं हैं, इस कारण शब्दके ग्रहण होनेसे आकाश भी अवश्य कर्ण-इन्द्रियसे प्रत्यक्ष होना चाहिये, परंतु वह आकाश तो कभी इन्द्रिय प्रत्यक्ष होता नहीं है, इसलिये शब्द आकाशका गुण कदापि नहीं हो सकता । यहाँपर भी कोई ऐसी तर्क करे, कि पुद्गलद्रव्य मूर्तीक है, उसका ही गुण शब्द हो जाना चाहिये, पुद्गलकी पर्याय क्यों कहते हो? इसका समाधान इस तरह है, कि पर्यायका लक्षण अनित्य है, और गुणका लक्षण नित्य है । यदि शब्द पुद्गलका गुण कहा जावे, तो पुद्गल हमेशा शब्दरूप ही प्राप्त होना चाहिये, परंतु ऐसा नहीं है । जब स्कंधोंका संयोग होता है, तब शब्द होता है, इसलिये पर्याय ही है, गुण नहीं है, ऐसा निश्चयकर जानना । यदि कोई यह कहे, कि जैसे भूमि पुद्गलकी पर्याय है, वह स्पर्शनादि चार इन्द्रियोंसे ग्रहण की जाती है, उसी प्रकार शब्द भी चार इन्द्रियोंसे प्रत्यक्ष होना चाहिये, एक कर्ण-इन्द्रियसे ही प्रत्यक्ष क्यों कहते हो? उसका उत्तर इस तरहसे है, कि जल पुद्गलकी पर्याय है, वह नासिका-इन्द्रियसे प्रत्यक्ष नहीं होता, अग्नि नासिका और जीभ इन दोनोंसे ग्रहण नहीं होती। पवन नासिका जीभ और नेत्र इन तीनोंसे ग्रहण नहीं होता, इस कारण 'जिस इंद्रियका जो विषय है, उस इंद्रियसे वही ग्रहण किया जाता है, ऐसा नियम तो है, परंतु ऐसा नहीं, कि जो पुद्गलकी पर्याय है, वह सभी इंद्रियोंसे ग्रहण होनी चाहिये। इस कारण शब्द केवल कर्णेन्द्रियसे ही ग्रहण किया जाता है, शेष चार इंद्रियोंसे ग्राह्य नहीं है। यदि यहाँपर कोई अन्यवादी ऐसी तर्कणा करे, कि-जलमें गंध गुण नहीं होनेसे नासिका जलको नहीं ग्रहण करती । अग्निमें गंध, रस, इन दोनों गुणोंके न होनेसे नासिका जीभ ये दोनों उसको ग्रहण नहीं कर सकती। पवनमें गंध, रस, रूप, इन तीनोंके न होनेसे नासिका, जीभ, नेत्र, उसको ग्रहण नहीं करते हैं ? इस तर्कका समाधान इस तरहसे है, कि ऐसा कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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