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________________ प्रवचनसारः १६१ ३४ ] स्फटिकमणिरिव विश्रान्तपरारोपित विकारोऽहमेकान्तेनास्मि मुमुक्षुः, इदानीमपि न नाम मम कोऽप्यस्ति, इदानीमप्यहमेक इव सुविशुद्धचित्स्वभावेन स्वतन्त्रः कर्तास्मि, अहमेक एव च सुविशुद्धचित्स्वभावेन साधकतमः करणमस्मि, अहमेक एव च सुविशुद्धचित्परिणमनस्वभावेनात्मनाप्राप्यः कर्मास्मि, अहमेक एव च सुविशुद्धचित्परिणमनस्वभावस्य निष्पाद्यमनाकुलवलक्षणं सौख्याख्यं कर्मफलमस्मि । एवमस्य बन्धपद्धतौ मोक्षपद्धतौ चात्मानमेकमेव भावयतः परमाणोरिवैकत्वप्रभावनोन्मुखस्य परद्रव्यपरिणतिर्न जातु जायते । परमाणुरिव भावितैकलच परेण नो संपृच्यते । ततः परद्रव्यासंपृक्तत्वात्सुविशुद्धो भवति । कर्तृकरणकर्मकर्मफलानि चात्मवेन भावयन् पर्यायैर्न संकीर्यते, ततः पर्यायासंकीर्णत्वाच्च सुविशुद्धो भवतीति ॥ ३४ ॥ द्रव्यान्तरव्यतिकरादपसारितात्मा सामान्यमज्जितसमस्त विशेषजातः । इत्येष शुद्धनय उद्धतमोहलक्ष्मीलुण्टाक उत्कटविवेकविविक्ततत्त्वः ॥ णतिबलेन कम्मं शुद्धबुद्धैकस्वभावेन परमात्मना प्राप्यं व्याप्यमहमेक एव कर्मकारकमस्मि । फलं च शुद्धज्ञानदर्शनस्वभावषरमात्मनः साध्यं निष्पाद्यं निजशुद्धात्मरुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूति रूपाभेदरत्नत्रयात्मकपरमसमाधिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वाद परिणतिरूपमहमेक एव फलं चास्मि णिच्छिदो एवमुक्तप्रकारेण निश्चितमतिः सन् समणो सुखदुःखजीवितमरणशत्रुमित्रादिसमताभावनापरिणतः श्रमणः परममुनिः परिणमदि व अण्णं जदि परिणमति नैवान्यं रागादिपरिणामं यदि चेत् अप्पाणं लहदि सुद्धं तदात्मानं भावकर्मकहलाया । मैं ही एक सराग चैतन्यपरिणति स्वभावसे अपने अशुद्ध भावको प्राप्त हुआ, इसलिये कर्म मैं ही हुआ । तथा मैं ही एक सराग चैतन्यभावसे उत्पन्न और आत्मीक - सुखसे उलटा ऐसा दुःखरूप कर्मफल हुआ, इस कारण अज्ञान दशामें भी मैं इन चारों भेदोंसे अभेदरूप परिणत हुआ, और अब ज्ञान दशामें जैसे रक्त पुष्पके संयोगके छूट जानेसे स्फटिकमणि निर्मल स्वाभाविक शुद्ध हो जाता है, वैसे मैं भी सर्वथा प्रकृतियोंके विकारसे रहित हुआ, निर्मल मोक्षमार्ग में प्रवर्तता हूँ, तो अब भी मेरा कोई नहीं, अब मैं ही एक निर्मल चैतन्यभावसे स्वाधीन कर्त्ता हूँ, मैं ही एक निर्मल चैतन्य भावकर शुद्ध स्वभावका अतिशय से साधनेवाला करण हूँ, मैं ही एक निर्मल चैतन्य परिणमन स्वभावसे शुद्ध स्वरूपको प्राप्त होता हूँ, इसलिये कर्म हूँ, और मैं ही एक निर्मल चैतन्यस्वभावकर उत्पन्न आकुलता रहित आत्मीक - सुखरूप कर्मफल हूँ, इसलिये ज्ञानदशामें भी मैं ही अकेला हुआ, इन चारों भेदोंसे अभेदरूप परिणमन करता हूँ, दूसरा कोई भी नहीं । इस प्रकार इस जीवके बंधपद्धति और मोक्ष-पद्धतिके होनेपर भी एक आत्म-स्वरूपकी भावना (चितवन) से परद्रव्यरूप परिणति किसी समय भी नहीं हो सकती। जैसे एक भावरूप परिणत हुए परमाणुका अन्य परमाणुके साथ संयोग नहीं होता, उसी तरह आत्माका भी परद्रव्यके साथ संबंध नहीं होता है, इसलिये अशुद्ध पर्यायोंसे भी संबंध नहीं होता । इस तरह प्रव. २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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