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________________ कुन्दकुन्दविरचितः कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प ति णिच्छिदो समणो । परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं ॥ ३४ ॥ कर्ता करणं कर्म कर्मफलं चात्मेति निश्चितः श्रमणः । परिणमति नैवान्यद्यदि आत्मानं लभते शुद्धम् ॥ ३४ ॥ यो हि नामैवं कर्तारं करणं कर्म कर्मफलं चात्मानमेव निश्चित्य न खलु परद्रव्यं परिणमति स एव विश्रान्तपरद्रव्यसंपर्क द्रव्यान्तःप्रलीनपर्यायं च शुद्धमात्मानमुपलभते, न पुनरन्यः । तथाहि - यदा नामानादिप्रसिद्धपौद्गलिककर्मबन्धनोपाधिसंनिधिमधावितोपरागरञ्जितात्मवृत्तिर्जपापुष्पसंनिधिप्रधावितोपरागरञ्जितात्मवृत्तिः स्फटिकमणिरिव परारोपितविकारोऽहमासं संसारी तदपि न नाम मम कोऽप्यासीत् तदाप्यहमेक एवोपरक्तचित्स्वभावेन स्वतन्त्रः कर्ता, स अहमेक एवोपरक्तचित्स्वभावेन साधकतमः करणमासम् । अहमेक एवोपरक्तचित्परिणमनस्वभावेनात्मना प्राप्यः कर्मासम् । अहमेक एव चोपरक्तचित्परिणमनस्वभावस्य निष्पाद्यं सौख्यं विपर्यस्तलक्षणं दुःखाख्यं कर्मफलमासम् । इदानीं पुनरनादिप्रसिद्धपौगलिककर्मबन्धनोपाधिसंनिधिध्वंस विस्फुरितसुविशुद्धसहजात्मवृत्तिर्जपापुष्पसं निधिध्वंस विस्फुरितसुविशुद्धसहजात्मवृत्तिः स्वतन्त्रः स्वाधीनः कर्ता साधको निष्पादकोऽस्मि भवामि । स कः । अप्प त्ति आत्मेति । आत्मेति कोऽर्थः । अहमिति । कथंभूतः । एकः । कस्याः साधकः । निर्मलात्मानुभूतेः । किंविशिष्टः । निर्विकारपरमचैतन्यपरिणामेन परिणतः सन् करणं अतिशयेन साधकं साधकतमं करणमुपकरणं करणकारकमहमेफ एवास्मि भवामि । कस्याः साधकः । सहजशुद्ध परमात्मानुभूतेः । केन कृत्वा । रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानपरिपूर्ण करते हैं- [कर्ता ] कामका करनेवाला [करणं ] जिससे किया जाय, ऐसा मुख्य कारण [ कर्म ] जो किया जाय वह कर्म [च] और [ फलं ] कर्मका फल ये चारों [आत्मा इति ] आत्मा ही हैं, ऐसा [निश्चितः ] निश्चय करनेवाला [ श्रमणः ] भेदविज्ञानी मुनि [ यदि ] जो [ अन्यत् ] परद्रव्यरूप [ नैव ] नहीं [परिणमति ] परिणमन करता है, [तदा] तभी [शुद्धं आत्मानं ] शुद्ध अर्थात् कर्मोपाधिरहित शुद्ध चिदानंदरूप आत्माको [ लभते ] पाता है । भावार्थ- - जब यह जीव परद्रव्यके संबंधसे आत्माको जुदा जुदा जानकर शुद्ध कर्त्ता, शुद्ध करण, शुद्ध कर्म, शुद्ध फल, इन चारों भेदोंसे आत्माको अभेदरूप समझता है, इनसे एकताका निश्चयकर किसी कालमें भी परद्रव्यसे एकपना मानके परिणमन नहीं करता, वही जीव अभेदरूप ज्ञायकमात्र अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त होता है । इसी कथनको विशेषतासे दिखाते हैं— जैसे लाल पुष्पके संयोगसे स्फटिकमणिमें राग-विकार उत्पन्न हो जाता है, उसी तरह अनादि कालसे पुद्गलकर्मके बंधनरूप उपाधिके संबंधसे जिसके रागवृत्ति उत्पन्न हुई है, ऐसा मैं परकृत विकारसहित पूर्व ही अज्ञान दशामें संसारी था, उस समय में भी मेरा अन्य द्रव्य कोई भी नहीं संबंधी था, ऐसी अवस्था में भी अकेला ही मैं अपनी भूलसे सराग चैतन्यभाव कर कर्त्ता हुआ । मैं ही एक सराग चैतन्यभावकर अज्ञान भावका मुख्य कारण हुआ, इससे करण भी मैं ही १६० Jain Education International For Private & Personal Use Only [अ० २, गा० ३४ www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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