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________________ १५६ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० २, गा० ३०क्रियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात् । या च क्रिया सा पुनरात्मना स्वतन्त्रेण प्राप्यत्वात्कर्म | ततस्तस्य परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण एव कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मणः । अथ द्रव्यकर्मणः कः कर्तेति चेत् । पुद्गलपरिणामो हि तावत्स्वयं पुद्गल एव, परिणामिनः परिणामस्वरूपकर्तृलेन परिणामादनन्यत्वात् । यश्च तस्य तथाविधः परिणामः सा पुद्गलमय्येव क्रिया, सर्वद्रव्याणां परिणामलक्षणक्रियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात् । या च क्रिया सा पुनः पुद्गलेन स्वतन्त्रेण प्राप्यत्वात्कर्म । ततस्तस्य परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता, न त्वात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मणः । तत आत्मात्मस्वरूपेण परिणमति न पुद्गलस्वरूपेण परिणमति ॥ ३० ॥ अथ किं तत्स्वरूपं येनात्मा परिणमतीति तदावेदयति मिनोस्तन्मयत्वात् । सा पुण किरिय त्ति होदि सा पुनः क्रियेति भवति स च परिणामः क्रिया परिणतिरिति भवति । कथंभूता । जीवमया जीवेन निर्वृत्तत्वाज्जीवमयी किरिया कम्म त्ति मदा जीवन स्वतन्त्रेण स्वाधीनेन शुद्धाशुद्धोपादानकारणमूतेन प्राप्यत्वात्सा क्रिया कर्मेति मता संमता । कर्मशब्देनात्र यदेव चिद्रूपं जीवादभिन्नं भावकर्मसंज्ञं निश्चयकर्म तदेव ग्राह्यम् । तस्यैव कर्ता जीवः तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता तस्माद् द्रव्यकर्मणो न कर्तेति । अत्रैतदायाति - यद्यपि कथंचित् परिणामित्वे सति जीवस्य कर्तृत्वं जातं तथापि निश्चयेन स्वकीय परिणामानामेव कर्ता पुद्गलकर्मणां व्यवहारेणेति । तत्र तु यदा शुद्धोपादानकारणरूपेण शुद्धोपयोगेन परिणमति तदा मोक्षं साधयति, अशुद्धोपादानकारणेन तु बन्धमिति । पुद्गलोऽपि जीववन्निश्चयेन स्वकीयपरिणामानामेव कर्ता जीवपरिणामानां व्यवहारेणेति ॥ ३० ॥ एवं रागादिपरिणामाः कर्मबन्धकारणं और परिणामका आपसमें भेद नहीं है, इसलिये जो जीवका परिणाम है, वह जीव ही हुआ । और जो परिणाम है, वह आत्माकी क्रिया होनेसे जीवमयी क्रिया कही जाती है, क्योंकि जिस द्रव्यकी जो परिणामरूप क्रिया है, उससे द्रव्य तन्मय है, इस कारण जीव भी तन्मय होनेसे जीवमयी क्रिया कहलाई । जो क्रिया है, वह आत्माने स्वाधीन होकर की है, इसलिये उसी क्रियाको कर्म कहते हैं । इससे यह सारांश निकला कि आत्माके रागादि विभाव परिणाम आत्माकी क्रिया ( कार्रवाई ) है, उस क्रियासे जीव तन्मय हो जाता है, ये ही जीवके भावकर्म हैं । इसलिये निश्चयसे आत्मा अपने भावकर्मोंका कर्ता है । जब आत्मा अपने भावकर्मोंका कर्ता है, तब तो पुद्गल परिणामरूप द्रव्यकर्मका कर्ता कभी नहीं हो सकता है ? यदि कोई ऐसा प्रश्न करे, कि द्रव्यकर्मका कर्ता कौन है ? तो उसका उत्तर यह है, कि पुद्गलका जो परिणाम वह पुद्गल ही है, और परिणामी अपने परिणामोंका कर्ता है, परिणाम - परिणामी एक ही हैं । जो पुद्गलपरिणाम है, वही पुद्गलमयी क्रिया है, क्योंकि सब द्रव्योंकी परिणामरूप क्रियाको तन्मयपना सिद्ध है । जो क्रिया है, वह कर्म है। पुद्गलने भी स्वाधीन होकर की है। इससे यह बात सिद्ध हुई, कि पुद्गल अपने द्रव्यकर्मरूप परिणामोंका कर्ता है, परंतु जीवके भावकर्मरूप परिणामोंका कर्ता नहीं है । इस कारण पुद्गल आत्म-स्वरूप परिणमन नहीं करनेसे ही द्रव्यकर्मका कर्ता नहीं हो सकता ॥ ३० ॥ आगे जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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