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________________ १५५ ३०] प्रवचनसारः हेतुत्वेनोपादानात् । एवं कार्यकारणभूतनवपुराणद्रव्यकर्मवादात्मनस्तथाविधपरिणामो द्रव्यकर्मैव । तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृवाद्रव्यकर्मकर्ताप्युपचारात् ॥ २९ ॥ अथ परमार्थादात्मनो द्रव्यकर्माकर्तृखमुद्द्योतयति परिणामो सयमादा सा पुण किरिय त्ति होदि जीवमया। किरिया कम्म त्ति मदा तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता॥३०॥ परिणामः स्वयमात्मा सा पुनः क्रियेति भवति जीवमयी। क्रिया कर्मेति मता तस्मात्कर्मणो न तु कर्ता ॥३०॥ आत्मपरिणामो हि तावत्स्वयमात्मैव, परिणामिनः परिणामस्वरूपकर्तृखेन परिणामादनन्यखात् । यश्च तस्य तथाविधः परिणामः सा जीवमय्येव क्रिया, सर्वद्रव्याणां परिणामलक्षणणानादिकर्मबन्धवशात् कम्ममलिमसो कर्ममलीमसो भवति । तथा भवन्सन् किं करोति । परिणामं लहदि परिणामं लभते । कथंभूतम् । कम्मसंजुत्तं कर्मरहितपरमात्मनो विसदृशकर्मसंयुक्तं मिथ्यात्वरागादिविभावपरिणामं तत्तो सिलिसदि कम्मं ततः परिणामात् श्लिष्यति बध्नाति । किम् । कर्म । यदि पुनर्निर्मलविवेकज्योतिःपरिणामेन परिणमति तदा तु कर्म मुञ्चति तम्हा कम्मं तु परिणामो तस्मात् कर्म तु परिणामः । यस्मादागादिपरिणामेन कर्म बध्नाति, तस्माद्रागादिविकल्परूपो भावकर्मस्थानीयः सरागपरिणाम एव कर्मकारणत्वादुपचारेण कर्मेति भण्यते । ततः स्थितं रागादिपरिणामः कर्मबन्धकारणमिति ॥ २९ ॥ अथात्मा निश्चयेन स्वकीयपरिणामस्यैव कर्ता न च द्रव्यकर्मग इति प्रतिपादयति । अथवा द्वितीयपातनिकाशुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धनयेन यथैवाकर्ता तथैवाशुद्धनयेनापि सांख्येन तदुक्तं तन्निषेधार्थमात्मनो बन्धमोक्षसिद्वयर्थ कथंचित्परिणामित्वं व्यवस्थापयतीति पातनिकाद्वयं मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं निरूपपयति-परिणामो सयमादा परिणामः स्वयमात्मा आत्मपरिणामस्तावदात्मैव । कस्मात्परिणामपरिणाआता है, क्योंकि रागादि विभावपरिणामोंसे द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्मसे विभावपरिणाम होते हैं ? इसका उत्तर इस प्रकार है, कि-यह आत्मा अनादिकालसे द्रव्यकर्मोकर बँधा हुआ है, इस कारण पूर्व बंधे द्रव्यकर्म उस रागादि विभावपरिणामके कारण होते हैं, और विभावपरिणाम नवीन द्रव्यकर्मके कारण होते हैं, इसलिये एक दूसरेके आश्रयरूप इतरेतराश्रय दोष नहीं हो सकता । इस तरह नवीन प्राचीन कर्मका भेद होनेसे कार्य कारणभाव सिद्ध होता है। आत्मा नियमसे अपने विभावरूप रागादि भावकर्मीका कर्ता है, और व्यवहारसे द्रव्यकर्मोंका भी कर्ता कहा जाता है ॥२९॥ आगे निश्चयनयसे 'आत्मा द्रव्यकर्मका अकर्ता हे' यह कहते हैं-[परिणामः] जो आत्माका परिणाम है, वह [स्वयं] आप [आत्मा] जीव ही है, [पुनः] और [क्रिया] वह परिणामरूप क्रिया [जीवमयी] जीवकर की जाती है, इससे जीवमयी [इति] ऐसी [भवति] होती है, अर्थात् कही जाती है । [क्रिया] जो क्रिया है, वही [कर्म इति] 'कर्म' ऐसी सज्ञासे [मता] मानी गई है, [तस्मात् इस कारण आत्मा [कर्मणः] द्रव्यकर्मका [न तु कर्ता] करनेवाला नहीं है ॥ भावार्थ-परिणामी अपने परिणामका कर्ता होता है, क्योंकि परिणामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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