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________________ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० २, गा० २१स्यासदुत्पादः। तथाहि-न हि मनुजस्त्रिदशो वा सिद्धो वा स्यात्, न हि त्रिदशो मनुजो वा सिद्धो वा स्यात् । एवमसन् कथमनन्यो नाम स्यात् येनान्य एव न स्यात् । येन च निष्पद्यमानमनुजादिपर्यायं जायमानवलयादि विकारं काश्चनमिव जीवद्रव्यमपि प्रतिपदमन्यन स्यात् ॥२१॥ अथैकद्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वविप्रतिषेधमुटुनोति दव्वट्टिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयहिएण पुणो। हवदि य अण्णमणण्णं तकाले तम्मयत्तादो ॥ २२ ॥ द्रव्याथिकेन सर्व द्रव्यं तत्पर्यायाधिकेन पुनः। भवति चान्यदनन्यत्तत्काले तन्मयत्वात् ॥ २२ ॥ सर्वस्य हि वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्यविशेषौ गरिच्छिन्दती द्वे किल चक्षुषी, द्रव्याथिकं पर्यायार्थिक चेति । तत्र पर्यायार्थिकमेकान्तनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्याथिकेन यदावलोक्यते तदा नारकतिर्यामनुष्यदेवकस्मात् । पर्यायाणां परस्परं भिन्नकालत्वात् , सुवर्णद्रव्ये कुण्डलादिपर्यायाणामिव । एवं अहोज्जमाणो एवमभवन्सन् अणण्णभावं कधं लहदि अनन्यभावमेकत्वं कथं लभते, न कथमपि । तत एतावदायाति असद्भावनिबद्धोत्पादः पूर्वपर्यायाद्भिन्नो भवतीति ॥ २१ ॥ अथैकद्रव्यस्य पर्यायैस्सहानन्यत्वाभिधानमेकत्वमन्यत्वाभिधानमनेकत्वं च नयविभागेन दर्शयति, अथवा पूर्वोक्तसद्भावनिबद्धासद्भावमुत्पादद्वयं प्रकारान्तरेण समर्थयति-हवदि भवति । किं कर्तृ । सव्वं दव्यं सर्व विवक्षिताविवक्षितजीवद्रव्यम् । किं विशिष्टं भवति । अणणं अनन्यमभिन्नमेकं तन्मयमिति । केन सह । तेन नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवरूपविभावपर्यायसमूहेन केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयशक्तिरूपसिद्धपर्यायेण च । केन कृत्वा । दलहिएण शुद्धान्वयद्रव्यार्थिकदेव-पर्यायरूप जीव मनुष्य-पर्यायरूप वा सिद्ध-पर्याय रूप नहीं होता, इस तरह पर्यायके भेदसे द्रव्य भी अन्य कहा जाता है । इस कारण पर्यायार्थिकनयसे द्रव्य अन्यरूप अवश्य करना चाहिये । जैसे सोना कंकण कुंडलादि पर्यायोंके भेदसे 'कंकणका सोना,' 'कुंडलका सोना' इस रीतिसे अन्य अन्यरूप कहा जाता है, उसी प्रकार मनुष्यजीव, देवजीव, सिद्धजीव इस तरह अन्य अन्य रूप कहनेमें आता है। इस कारण असत्उत्पादमें द्रव्यको अन्यरूप कहना चाहिये, यह सिद्ध हुआ ॥ २१ ॥ आगे एक द्रव्यके अन्यत्व, अनन्यत्व ये दो भेद हैं, वे परस्पर विरोधी एक जगह किस तरह रह सकते है ? इसका समाधान आचार्य महाराज करते हैं-[द्रव्यार्थिन] द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षासे [तत् सर्व] वह समस्त वस्तु [अनन्यत् ] अन्य नहीं है, वही है, अर्थात् नर नारकादि पर्यायोंमें वही एक द्रव्य रहता है [पुनः] और [पर्यायार्थिन] पर्यायार्थिकनयकी विवक्षासे [अन्यत् ] अन्यरूप द्रव्य होता है, अर्थात् नर नारक आदि पर्यायोंसे जुदा जुदा कहा जाता है। क्योंकि [तत्कालं] नर नारकादि पर्यायोंके होनेके समय वह द्रव्य [तन्मयत्वात् ] उस पर्यायस्वरूप ही हो जाता है। भावार्थ-वस्तु सामान्य, विशेषरूप दो प्रकारसे है। इन दोनोंके देखनेवाले हैं, उनके दो नेत्र कहे हैं-एक तो द्रव्यार्थिक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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