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________________ २२ ] सिद्धत्व पर्यायात्मकेषु विशेषेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यमेकमवलोकयतामनवलोकितविशेषाणां तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति । यदा तु द्रव्यार्थिकमेकान्तनिमीलितं [ विधाय ] केवलोन्सीलितेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यग्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकान् विशेषानने कानवलोकयतामनवलोकितसामान्यानामन्यदन्यत्प्रतिभाति । द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषेभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात् गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत् । यदा तु ते उभे अपि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिके तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्वावलोक्यते तदा नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यं जीवसामान्ये च व्यवस्थिता नारकतिर्यग्मनुष्य देवसिद्धत्व पर्यायात्मका विशेषाश्च तुल्यकालमेवावलोक्यन्ते । तत्रैकचक्षुरवलोकन मेकदेशावलोकनं, द्विचक्षुरवलोकनं सर्वावलोकनम् । ततः सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यत्वमनन्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते ॥ २२ ॥ अथ सर्वविप्रतिषेधनिषेधिकां सप्तभङ्गीमवतारयति प्रवचनसारः १४५ नयेन । कस्मात् । कुण्डलादिपर्यायेषु सुवर्णस्येव भेदाभावात् तं पज्जयट्ठिएण पुणो तद् द्रव्यं पर्यायार्थिकनयेन पुनः अन्यद्भिन्नमनेकं पर्यायैः सह पृथग्भवति । कस्मादिति चेत् । तक्काले तम्मयत्तादो तृणाग्निकाष्ठाग्निपत्राग्निवत् स्वकीयपर्यायैः सह तत्काले तन्मयत्वादिति । एतावता विमुक्तं भवति । द्रव्यार्थिकयेन यदा वस्तुपरीक्षा क्रियते तदा पर्यायसंतानरूपेण सर्वं पर्यायकदम्बकं द्रव्यमेव प्रतिभाति । यदा तु पर्यायनयविवक्षा क्रियते तदा द्रव्यमपि पर्यायरूपेण भिन्न भिन्नं प्रतिभाति । यदा च परस्परसापेक्षया नयद्वयेन युगपत्समीक्ष्यते, तदैकत्वमनेकत्वं च युगपत्प्रतिभातीति । यथेदं जीवद्रव्ये व्याख्यानं कृतं तथा सर्वद्रव्येषु यथासंभवं ज्ञातव्यमित्यर्थः ॥ २२ ॥ एवं सदुत्पादकथनेन प्रथमा सदुत्पादविशेषविवरणरूपेण दूसरा पर्यायार्थिक । इन दोनों नेत्रोंमेंसे जो पर्यायार्थिक नेत्रको सर्वथा बंद करके एक द्रव्यार्थिक नेत्रसे ही देखे, तब नारक, तिर्थंच, मनुष्य, देव, सिद्ध पर्यायोंमें स्थित जो सामान्य एक जीव उसके देखनेवाले पुरुषको सब जगह जीव ही प्रतिभासता ( दीखता ) है, भेद नहीं मालूम होता । और जब द्रव्यार्थिक नेत्रको सर्वथा बंद कर एक पर्यायार्थिक नेत्रसे ही देखा जावे, तब जीवद्रव्य में नर नारकादि पर्यायोंके देखनेवाले पुरुषोंको नर नारकादि पर्याय जुदा जुदा मालूम होते हैं । जिस कालमें जो पर्याय होता है, उस पर्यायमें जीव उसी स्वरूप परिणमता है। जैसे कि आग, गोबरके छाने - कंडे, तृण, पत्ता, काठ आदि ईंधन आकार हो जाती है, उसी प्रकार जीव भी अनेक पर्यायोंको धारण करता हुआ अनेक आकाररूप होजाता है । तथा जब द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोनों ही नेत्रोंसे इधर उधर सब जगह देखा जाय, तो एक ही समय नर नारकादि पर्यायोंमें वही एक द्रव्य देखनेमें आता है, और अन्य अन्य रूप भी दीखता है । इस कारण एक नयरूप नेत्रसे देखना एक अंगका देखना है, तथा दो नयरूप नेत्रोंसे देखना सब अंगोंका देखना कहा जाता है । इसलिये सर्वांग द्रव्यके देखनेमें अन्यरूप और अनन्यरूप -- इस तरह दो स्वरूप कहनेका निषेध नहीं हो सकता || २२ || अब सब तरहके विरोधोंको दूर प्रव. १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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