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________________ २१] प्रवचनसारः १४३ भारकतिर्यग्मनुष्यदेवसिद्धत्वानामन्यतमेन पर्यायेण द्रव्यस्य पर्यायदुर्ललितवृत्तित्वादवश्यमेव भविष्यति । स हि भूत्वा च तेन किं द्रव्यभूतामन्वयशक्तिमुज्झति, नोज्झति । यदि नोज्झति कथमन्यो नाम स्यात्, येन प्रकटितत्रिकोटिसत्ताकः स एव न स्यात् ।। २० ॥ अथासदुत्पादमन्यत्वेन निश्चिनोति मणुवो ण हवदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा। एवं अहोजमाणो अणण्णभावं कधं लहदि ॥ २१॥ मनुजो न भवति देवो देवो वा मानुषो वा सिद्धो वा। एवमभवननन्यभावं कथं लभते ॥ २१॥ पर्याया हि पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः काल एव सत्वात्ततोऽन्यकालेषु भवन्त्यसन्त एव । यश्च पर्यायाणां द्रव्यत्वभूतयान्वयशक्यानुस्यूतः क्रमानुपाती खकाले प्रादुर्भावः तस्मिन्पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः पूर्वमसत्त्वात्पर्याया अन्य एव । ततः पर्यायाणामन्यत्वेन निश्चीयते पर्यायस्वरूपककरणाधिकरणभूतत्वेन पर्यायेभ्यो पृथग्भूतस्य द्रव्यपरित्यजति ण चयदि द्रव्यार्थिकनयेन द्रव्यत्वं न त्यजति द्रव्याद्भिन्नो न भवति । अण्णो कई इवदि अन्यो भिन्नः कथं भवति । किंतु द्रव्यान्वयशक्तिरूपेण सद्भावनिबद्धोत्पादः स एवेति द्रव्यादभिन्न इति भावार्थः ॥२०॥ अथ द्रव्यस्यासदुत्पादं पूर्वपर्यायादन्यत्वेन निश्चिनोति-मणुवो ण हवदि देवो आकुलत्वोत्पादकमनुजः देवादिविभावपर्यायविलक्षणमनाकुलवरूपस्वभावपरिणतिलक्षणं परमात्मद्रव्यं यद्यपि निश्चयेन मनुष्यपर्याये देवपर्याये च समानं तथापि मनुजो देवो न भवति । कस्माद्देवपर्यायकाले मनुष्यपर्यायस्यानुपलम्भात् । देवो वा माणुसो व सिद्धो वा देवो वा मनुष्यो न भवति स्वात्मोपलब्धिरूपसिद्धपर्यायो वा न भवति । नहीं छोड़ता, तो अन्यरूप कभी नहीं हो सकता, जो नारकी था, वही तिथंच पर्यायमें है, वही मनुष्य हो नाता है, वही देवता तथा सिद्ध आदि पर्यायरूप हो जाता है। इन सब अवस्थाओंमें अविनाशी द्रव्य वही एक है, दूसरा नहीं । इसलिये सत्उत्पादकी अपेक्षा सब पर्यायोंमें वही अविनाशी वस्तु है, ऐसा सिद्ध हुआ ॥ २० ॥ आगे असत्उत्पादको अन्यरूपसे दिखाते हैं-[मनुजः] जो मनुष्य है, वह [देवः] देव [वा] अथवा [देवः] देव है, वह [मानुषः] मनुष्य [वा] अथवा [सिद्धः] सिद्ध अर्थात् मोक्ष-पर्यायरूप [न भवति] नहीं हो सकता, [एवं अभवन् ] इस प्रकार नहीं होता हुआ [अनन्यभावं] अभिन्नपनेको [कथं] किस तरह [लभते] प्राप्त हो सकता है ? । भावार्थ-जो देव मनुष्यादि पर्याय हैं, वे सब एक कालमें नहीं होते, किंतु जुदा जुदा समयमें होते हैं। जिस समय देव-पर्याय है उस समय मनुष्यादि पर्याय नहीं है, एक ही पर्याय हो सकती है। इस कारण जो एक पर्याय होती है, वह अन्यरूप नहीं हो सकती । सब जुदा जुदा ही पर्याय होते हैं। इसलिये पर्यायका कर्ता, करण, द्रव्य, आधार है, सो द्रव्य पर्यायसे जुदा नहीं है, पर्यायके पलटनेसे द्रव्य भी व्यवहारसे अन्य कहा जाता है । जैसे-मनुष्य-पर्यायरूप जीव देव-पर्यायरूप वा सिद्ध-पर्यायरूप नहीं होता, और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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