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________________ १४० कुन्दकुन्दविरचितः [अ० २, गो० १९एवंविधं स्वभावे द्रव्यं द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्याम् । सदसद्भावनिबद्धं प्रादुर्भावं सदा लभते ॥ १९॥ एवमेतद्यथोदितप्रकारसाकल्याकलङ्कलाञ्छनमनादिनिधनं सत्स्वभावे प्रादुर्भावमास्कन्दति द्रव्यम् । स तु प्रादुर्भावो द्रव्यस्य द्रव्याभिधेयतायां सद्भावनिबद्ध एव स्यात् । पर्यायाभिधेयतायां बसद्भावनिबद्ध एव । तथाहि-यदा द्रव्यमेवाभिधीयते न पर्यायास्तदा प्रभवावसानवर्जिताभियौंगपद्यप्रवृत्ताभिव्यनिष्पादिकाभिरन्वयशक्तिभिः प्रभवावसानलाञ्छनाः क्रममवृत्ताः पर्यायनिष्पादिका व्यतिरेकव्यक्तीस्तास्ताः संक्रामतो द्रव्यस्य सद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः हेमवत । तथाहि-यदा हेमैवाभिधीयते नाङ्गदादयः पर्यायास्तदा हेमसमानजीविताभियौंगपद्यप्रवृत्ताभिर्हेमनिष्पादिकाभिरन्वयशक्तिभिरङ्गदादिपर्यायसमानजीविताः क्रमप्रवृत्ता अङ्गदादिद्रव्यस्य द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यां सदुत्पादासदुत्पादौ दर्शयति---एवंविहसब्भावे एवंविधसद्भावे सत्तालक्षणमुत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणं गुणपर्यायलक्षणं द्रव्यं चेत्येवंविधपूर्वोक्तसद्भावे, अथ एवंविहं सहावे इति पाठान्तरम् । तत्रैवंविधं पूर्वोक्तलक्षणं स्वकीयसद्भावे स्थितम् । किम् । दव्वं द्रव्यं कर्तृ । किं करोति । सदा लभदि सदा सर्वकालं लभते । किं कर्मतापन्नम् । पादुब्भावं प्रादुर्भावमुत्पादम् । कथं भूतम् । सदसम्भावणिबद्धं सद्भावनिबद्धमसद्भावनिबद्धं च । काभ्यां कृत्वा । दव्वत्थपज्जयत्थेहिं द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यामिति । तथाहि-यथा यदा काले द्रव्यार्थिकनयेन विवक्षा क्रियते यदेव कटकपर्याये सुवर्णं तदेव कङ्कणपर्याये नान्यदिति, तदा काले सद्भावनिबद्ध एवोत्पादः । कस्मादिति चेत् । द्रव्यस्य द्रव्यरूपेणाउत्पाद' और 'असत् उत्पाद' ऐसा दो प्रकारका उत्पाद होता है, सो उन दोनोंका अविरोध दिखलाते है-[एवंविधं] इस प्रकारसे [द्रव्यं] द्रव्य [स्वभावे] स्वभावमें [द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्यां] द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयोंकी विवक्षासे [सदसद्भावनिबद्धं] सत् और असत् इन दो भावोंसे संयुक्त [प्रादुर्भावं] उत्पादको [सदा] हमेशा [लभते] प्राप्त होता है। भावार्थ-अनादि अनंत द्रव्य अपने परिणाम स्वभावमें निरंतर उत्पन्न होता है, इसको 'उत्पाद' कहते हैं । इसे जब द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षासे कहते हैं, तब यों कहते हैं, कि द्रव्य जो जो पर्याय धारण करता है, उन उन पर्यायोंमें वही द्रव्य उत्पन्न होता है, जो पूर्वमें था, इसका नाम 'सद्भावउत्पाद' है । और जब पर्यायकी अपेक्षासे कहते हैं, तब यों कहते हैं कि द्रव्य जो जो पर्याय धारण करता है, उन उन पर्यायोंमें वही द्रव्य अवस्थाके पलटनेसे अन्य कहा जाता है, इसका नाम 'असद्भावउत्पाद' है। इन दोनों प्रकारके उत्पादको नीचे लिखे दृष्टान्तसे समझना चाहिये । जैसे-सोना अपने अविनाशी पीत स्निग्ध (चिकने) गुरुत्वादि गुणोंसे नाना कंकण कुंडलादि पर्यायोंको प्राप्त होता है। जो यहाँपर द्रव्यार्थिकनयसे विचार करें, तो कंकण कुंडलादि जितने पर्याय हैं, उन सबमें वही सोना उत्पन्न होता है, जो कि पहले था, न कि दूसरा । यह सोनेका सद्भावउत्पाद है। और जो उन्ही कंकण कुंडलादि पर्यायोंमें सोनेको पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे कहें, तो . जितने कंकण कुंडलादि पर्याय हैं, सबके सब क्रम लिये हुए हैं । इस कारण ऐसा कहा जावेगा, कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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