SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९] प्रवचनसारः १४१ पर्यायनिष्पादिका व्यतिरेकव्यक्तीस्तास्ताः संक्रामतो हेम्नः सद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः । यदा तु पर्याया एवाभिधीयन्ते न द्रव्यं तदा प्रभवावसानलाञ्छनाभिः क्रममत्ताभिः पर्यायनिष्पादिकाभिव्यतिरेकव्यक्तिभिस्ताभिस्ताभिः प्रभवावसानवर्जिता योगपद्यमवृत्ता द्रव्यनिष्पादिका अन्वयशक्तीः संक्रामतो द्रव्यस्यासद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः हेमवदेव । तथाहि-यदाङ्गदादिपर्याया एवाभिधीयन्ते न हेम तदाङ्गदादिपर्यायसमानजीविताभिः क्रमप्रवृत्ताभिरङ्गदादिपर्यायनिष्पादिकाभिर्व्यतिरेकव्यक्तिभिस्ताभिस्ताभिहेमसमानजीविता यौगपद्यमवृत्ता हेमनिष्पादिका अन्वयशक्तीः संक्रामतो हेम्नोऽसद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः अथ पर्यायाभिधेयतायामप्यसदुत्पत्तौ पर्यायनिष्पादिकास्तास्ता व्यतिरेकव्यक्तयो यौगपद्यप्रवृत्तिमासाद्यान्वयशक्तित्वमापनाः पर्यायान् द्रवीकुर्युः, तथाङ्गदादिपर्यायनिष्पादिकाभिस्ताभिर्व्यतिरेकव्यक्तिभियोगपद्यप्रवृत्तिमासाद्यान्वयशक्तित्वमापनाभिरङ्गदादिपर्याया अपि हेमीक्रियेरन् । द्रव्याभिधेयतायामपि सदुत्पत्तौ द्रव्यनिष्पादिका अन्वयशक्तयः क्रमप्रवृत्तिमासाध तत्तद्वयतिरेकन्यक्तित्वमापन्ना द्रव्यं पर्याविनष्टत्वात् । यदा पुनः पर्यायविवक्षा क्रियते कटकपर्यायात् सकाशादन्यो यः कङ्कणपर्यायः सुवर्णसंबन्धी स एव न भवति । तदा पुनरसदुत्पादः कस्मादिति चेत् । पूर्वपर्यायस्य विनष्टत्वात् । तथा यदा द्रव्यार्थिकनयविवक्षा क्रियते य एव पूर्व गृहस्थावस्थायामेवमेवं गृहव्यापारं कृतवान् पश्चाजिनदीक्षां गृहीत्वा स एवेदानी रामादिकेवलीपुरुषो निश्चयरत्नत्रयात्मकपरमात्मध्यानेनानन्तसुखामृततृप्तो जातः, न चान्य इति । तथा सद्भावनिबद्ध एवोत्पादः । कस्मादिति चेत् । पुरुषत्वेनाविनष्टत्वात् । यदा तु पर्यायनयविवक्षा क्रियते । पूर्व सरागावस्थायाः सकाशादन्योऽयं भरतसगररामपाण्डवादिकेवलिपुरुषाणां संबन्धी निरुपमरागपरमात्मकंकण उत्पन्न हुआ, कुंडल उत्पन्न हुआ, मुद्रिका (अंगूठी) उत्पन्न हुई। ऐसा दूसरा दूसरा उत्पाद होता है, अर्थात् जो पूर्वमें नहीं था, वह उत्पन्न होता है, यह असद्भावउत्पाद है। इसी प्रकार द्रव्य अपने अविनाशी गुणोंसे युक्त रहकर अनेक पर्याय धारण करता है। सो उसे यदि द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षासे कहते हैं, तो जितने पर्याय हैं, उन सब पर्यायोंमें वही द्रव्य उत्पन्न होता है, जो पहले था, अन्य नहीं । यह सत्उत्पाद है । और यदि पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे कहते हैं, तो जितने पर्याय उत्पन्न होते हैं, वे सब अन्य अन्य ही हैं। पहले जो थे, वे नहीं हैं-यह असत् उत्पाद है। और जैसे पर्यायार्थिककी विवक्षामें जो असत्रूप कंकण कुंडलादि पर्याय उत्पन्न होते हैं, उनके उत्पन्न करनेवाली जो सुवर्णमें शक्ति है, वह कंकण कुंडलादि पर्यायोंको सुवर्ण द्रव्य करती है। सोनाकी पर्याय भी सोना ही है, क्योंकि पर्यायसे द्रव्य अभिन्न है । इसी प्रकार पर्याय विवक्षामें द्रव्यके जो असद्रूप पर्याय हैं, उनकी उत्पन्न करनेवाली शक्ति जो द्रव्यमें है, वह पर्यायको द्रव्य करती है। जिस द्रव्यके जो पर्याय हैं, वे उसी द्रव्यरूप हैं, क्योंकि पर्यायसे द्रव्य अभिन्न है। इसलिये पर्याय और द्रव्य दो वस्तु नहीं हैं, जो पर्याय है, वही द्रव्य है। और द्रव्यार्थिककी विवक्षासे जैसे सोना अपनी पीततादि शक्तियोंसे कंकण कुंडलादि पर्यायोमें उत्पन्न होता है, सो सोना ही कंकण कुंडलादि पर्यायमात्र होता है । अर्थात् जो सोना है, वही कंकण कुंडलादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy