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________________ ॥ ओं नमः ।। प्रस्तावना (प्रथम आवृत्ति) प्रिय विज्ञपाठको! मैं श्रीजिनेन्द्रदेवकी कृपासे आज आपके सन्मुख श्रीप्रवचनसार भी तीन टीकाओंसहित उपस्थित करता हूं। यह उसी नाटकत्रयीमेंका सिद्धान्त ग्रन्थ है। जो कि द्वितीयश्रुतस्कन्धके नामसे प्रसिद्ध है इसीसे जैन-संप्रदायमें परम माननीय है। इसकी उत्पत्ति इसतरह है कि श्रीवर्धमानस्वामीके निर्वाण होनेके पश्चात् ६८३ वर्षपर्यंत अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही। इसके बाद अंगपाठी कोईभी नहीं हुए किन्तु एक भद्रबाहुस्वामी अष्टांगनिमित्तज्ञानके (ज्योतिषके) धारक हुए। इनके समयमें १२ वर्षका दुर्भिक्ष पड़नेसे इनके संघर्मसे अनेक मुनि शिथिलाचारी हो गये और स्वच्छन्दप्रबृत्ति होनेसे जैनमार्ग भ्रष्ट होने लगा, तब भद्रबाहुस्वामीके शिष्योंमेंसे एक धरसेन नामके मुनि हुए जिनको आग्रायणीनामक दूसरे पूर्वमें पंचम वस्तु महाधिकारके महाप्रकृतिनाम चौथे प्राभूत (अधिकार) का ज्ञान था । __ उक्त धरसेनाचार्यके समयमें ही एक गुणधर नामा मुनि हुए, उनको ज्ञानप्रवाह पूर्वके दशमवस्तुमसे तृतीय प्राभृतका ज्ञान था । उनसे नागहस्तनामा मनिने उस प्राभूतको पढा और इन दोनों मुनियोंसे फिर यतिनायकनामा मुनिने १२००० श्लोकोंमें एक विस्तृत टीका रची, सो उस ग्रन्थको श्रीकुंदकुंदस्वामी अपने गुरु जिनचन्द्राचार्यसे पढकर पूर्ण रहस्यके ज्ञाता हुए और उसी ग्रंथके अनुसार पंचास्तिकायसमयसार नाटक-प्रवचनसाररूप नाटकत्रयी आदि ग्रन्थ रचे । ये सब ग्रन्थ द्वितीयश्रुतस्कंधके नामसे कहे जाते हैं । इन सबमें ज्ञानको प्रधान करके शुद्ध द्रव्यार्थिकनयका कथन किया गया है अर्थात अध्यात्मरीतीसे आत्माका ही अधिकार है। इन्हीं ग्रन्थोंसे परद्रव्य तथा परनिमित्तजन्यविकारभाव इनसे भिन्न अपनेको जानकर अपने शुद्धस्वरूपका अनुभवकर शुध्दोपयोगमें लीन हुआ कर्मोंका अभावकर यह जीव मोक्षपदको पाता है। इस महान ग्रन्थके कर्ता 'श्रीकुंदकुंदाचार्य' पट्टावलियोंके अनुसार वि. सं. ४९ में हुए हैं इनके बनाये हुए समस्त ग्रन्थोंको दिगंबर और श्वेताम्बर दोनोंही पक्षके विद्वद्गण प्रमाणभूत मानक परम आदरको दृष्टिसे इनका स्वाध्याय तथा अवलोकन करते रहते हैं अर्थात् सर्बजैनोंमें मान्य हैं। इस प्रन्थकी इस समय दो संस्कृत टीकायें प्रकाशित की गई हैं उनमेंसे एक 'तत्त्वदीपिका' नामकी टीका जो कि श्रीअमृतचन्द्रसूरिने बनाई है जो कि विक्रमसंवत् ९६२ में नंदि संघके पट्टपर हो गये हैं। इन्होंने अन्य ग्रन्थ भी बनाये हैं जो पुरुषार्थसिद्धयुपायादि नामोंसे प्रसिद्ध हैं । दूसरी 'तात्पर्यवृत्ति' नामकी टीका जो की श्रीजयसेनाचार्यने रची है इसमें विद्यार्थियोंके लिय बड़ी सुगमता की गई है । और तीसरी बालबोधिनी हिन्दी भाषाटीका पांडे हेमराजजीकृत भी शामिल कर दी गई है। १ इन्होंने ८२ प्राहुड ( 1) भी रचे हैं जिनमेंसे अष्ट पाहड तो इस समय मिलते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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