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कुन्दकुन्दविरचितः
[ अ० १, गा० १८
यथाहि जात्यजाम्बूनदस्याङ्गदपर्यायेणोत्पत्तिर्दृष्टा । पूर्वव्यवस्थिताङ्गुलीयकादिपर्यायेण च विनाशः । पीततादिपर्यायेण तूभयत्राप्युत्पत्तिविनाशात्रनासादयतः धुत्रत्वम् । एवमखिलद्रव्याणां केनचित्पर्यायेणोत्पादः केनचिद्विनाशः केनचिद्धौव्यमित्यववोद्धव्यम् । अतः शुद्धात्मनोऽप्युउत्पादश्च विनाशश्च विद्यते तावत्सर्वस्यार्थजातस्य पदार्थ समूहस्य । केन कृत्वा । पज्जाएण दु केणवि पर्यायेण तु केनापि विवक्षितेनार्थव्यञ्जनरूपेण स्वभावविभावरूपेण वा । स चार्थः किंविशिष्टः । अट्ठो खलु होदि सन्भूदो अर्थः खलु स्फुटं सत्ताभूतः सत्ताया अभिन्नो भवतीति । तथाहि —सुवर्णगोरसमृत्तिकापुरुषादिमूर्तपदार्थेषु यथोत्पादादित्रयं लोके प्रसिद्धं तथैवामूर्तेऽपि मुक्तजीवे । यद्यपि शुद्धात्मरुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिलक्षणस्य संसारावसानोत्पन्नकारण समयसारपर्यायस्य विनाशो भवति तथैव केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारपर्यायस्योत्पादश्च भवति, तथाप्युभयपर्यायपरिणतात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यत्वं पदार्थत्वादिति । अथवा ज्ञेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भङ्गत्रयेण परिणमन्ति तथा ज्ञानमपि परिच्छित्यपेक्षया यह कहते हैं ।
[केनापि ] किसी एक [पर्यायेण ] पर्यायसे [सर्वस्य अर्थजातस्य ] सब पदार्थोंकी [ उत्पादः] उत्पत्ति [ च विनाशः ] तथा नारा [ विद्यते ] मौजूद है, [तु] लेकिन [ खलु ] निश्चयसे [ अर्थ: ] पदार्थ [ सद्भूतः ] सत्तास्वरूप [ भवति ] है । भावार्थ- पदार्थका अस्तित्व (होना) सत्तागुणसे है, और सत्ता, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यस्वरूप है, सो किसी पर्यायसे उत्पाद तथा किसी पर्यायसे विनाश और किसी पर्यायसे ध्रुवपना सब पदार्थोंमें हैं । जब सब पदार्थों में तीनों अवस्था हैं, तब आत्मामें भी अवश्य होना सम्भव है । जैसे सोना कुंडल पर्यायसे उत्पन्न होता है, पहली कंकण (कड़ा) पर्यायसे विनाशको पाता है, और पीत, गुरु, तथा स्निग्ध ( चिकने ) आदिक गुणोंसे ध्रुव है, इसी प्रकार यह जीव भी संसारअस्वथामें देव आदि पर्यायकर उत्पन्न होता है, मनुष्य आदिक पर्यायसे विनाश पाता है, और जीवपनेसे स्थिर है । मोक्ष अवस्था में भी शुद्धपनेसे उत्पन्न होता है, अशुद्ध पर्यायसे विनाशको प्राप्त होता है, और द्रव्यपनेसे ध्रुव है । अथवा आत्मा सब पदार्थोंको जानता है, ज्ञान है, वह ज्ञेय (पदार्थ) के आकार होता है, इसलिये सब पदार्थ जैसे जैसे उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप होते हैं, वैसे वैसे ज्ञान भी होता है, इस ज्ञानकी अपेक्षा भी आत्मा के उत्पाद, व्यय, धौव्य जान लेना, तथा षट्गुणी हानि वृद्धिकी अपेक्षा भी उत्पाद आदिक तीन आत्मामें हैं । इसी प्रकार और बाकी द्रव्योंमें उत्पाद आदि सिद्ध कर लेना । यहाँ पर किसीने प्रश्न किया, कि द्रव्यका अस्तित्व ( मौजूद होना) उत्पाद वगैरः तीनसे क्यों कहा है ? एक ध्रुव ही से कहना चाहिये, क्योंकि जो ध्रुव (स्थिर) होगा, वह सदा मौजूद रह सकता है ? इसका समाधान इस तरह है— जो पदार्थ ध्रुव ही होता, तब मट्टी सोना दूध आदि सब पदार्थ अपने सादा आकारसे ही रहते, घड़ा, कुंडल, दही वगैरः भेद कभी नहीं होते, परंतु ऐसा देखनेमें नहीं आता । भेद तो अवश्य देखनेमें आता है, इस कारण पदार्थ अवस्थाकर उपजता भी है, और नाश भी पाता है, इसी लिये द्रव्यका स्वरूप उत्पाद, व्यय भी है । अगर ऐसा न माना जावे,
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