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________________ १८] प्रवचनसारः __ अस्य खल्वात्मनः शुद्धोपयोगप्रसादात् शुद्धात्मस्वभावेन यो भवः स पुनस्तेन रूपेण प्रलयाभावाद्भङ्गविहीनः । यस्त्वशुद्धात्मस्वभावेन विनाशः स पुनरुत्पादाभावात्संभवपरिवर्जितः अतोऽस्य सिद्धत्वेनानपायित्वम् । एवमपि स्थितिसंभवनाशसमवायोऽस्य न विप्रतिषिध्यते, भङ्गरहितोत्पादेन संभववर्जितविनाशेन तद्वयाधारभूतद्रव्येण ध्रौव्येण ?] च समवेतत्वात् ॥१७॥ अथोत्पादादित्रयं सर्वद्रव्यसाधारणत्वेन शुद्धात्मनोऽप्यवश्यं भवतीति विभावयति उप्पादो य विणासो विजदि सव्वस्स अट्ठजादस्स । पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सब्भूदो ॥१८॥ उत्पादश्च विनाशो विद्यते सर्वस्यार्थजातस्य । पर्यायेण तु केनाप्यर्थः खलु भवति सद्भूतः॥ १८ ॥ भङ्गविहिनश्च भवः जीवितमरणादिसमताभावलक्षणपरमोपेक्षासंयमरूपशुद्धोपयोगेनोत्पन्नो योऽसौ भवः केवलज्ञानोत्पादः । स किंविशिष्टः । भङ्गविहीनो विनाशरहितः । संभवपरिवज्जिदो विणासो हि योऽसौ मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपसंसारपर्यायस्य विनाशः । स किंविशिष्टः । संभवहीनः निर्विकारात्मतत्त्वविलक्षणरागादिपरिणामाभावादुत्पत्तिरहितः । तस्माज्ज्ञायते तस्यैव भगवतः सिद्धस्वरूपतो द्रव्यार्थिकनयेन विनाशो नास्ति । विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः, तस्यैव भगवतः पर्यायार्थिंकनयेन शुद्धव्यञ्जनपर्यायापेक्षया सिद्धपर्यायेणोत्पादः, संसारपर्यायेण विनाश:, केवलज्ञानादिगुणाधारद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमिति । ततः स्थितं द्रव्यार्थिंकनयेन नित्यत्वेऽपि पर्यायार्थिकनयेनोत्पादव्ययध्रौव्यत्रयं संभवतीति ॥ १७ ॥ अथोत्पादादित्रयं यथा सुवर्णादिमूर्तपदार्थेषु दृश्यते तथैवामूर्तेऽपि सिद्धस्वरूपे विज्ञेयं पदार्थत्वादिति निरूपयति–उप्पादो य विणासो विज्जदि सबस्स अट्ठजादस्स उत्पाद है। अर्थात् जो इस आत्माके शुद्धस्वभावकी उत्पत्ति हुई, फिर उसका नाश कभी नहीं होता [च संभवपरिवजितः विनाशः] और विनाश है, वह उत्पत्तिकर रहित है, अर्थात् अनादिकालकी अविद्या (अज्ञान) से पैदा हुआ जो विभाव (अशुद्ध) परिणाम उसका एकबार नाश हुआ, फिर वह नहीं उत्पन्न होता है, इससे तात्पर्य यह निकला, कि जो इस भगवान् (ज्ञानवान् ) आत्माके उत्पाद है, वह विनाश रहित हैं, और विनाश उत्पत्ति रहित है, तथा अपने सिद्धिस्वरूपकर ध्रुव (नित्य) है, अर्थात् जो यह आत्मा पहले अशुद्ध हालतमें था, वही आत्मा अब शुद्धदशामें मौजूद है, इस कारण ध्रुव है। [तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः] फिर उसी आत्मा के ध्रौव्य उत्पत्ति नाश इन तीनोंका मिलाप एक ही समयमें मौजूद है, क्योंकि यह भगवान् एक ही वक्त तीनों स्वरूप परिणमता है, अर्थात् जिस समय शुद्ध पर्यायकी उत्पत्ति है, उसी वक्त अशुद्ध प्रर्यायका नाश है, और उसी कालमें द्रव्यपनेसे ध्रुव है, दूसरे समयकी जरूरत ही नहीं है, यह कहनेसे यह अभिप्राय हुआ, कि द्रव्यार्थिकनयसे आत्मा नित्य होनेपर भी पर्यायार्थिकनयसे उत्पत्ति, विनाश, ध्रौव्य, इन तीनों सहित ही है ॥१७॥ आगे उत्पाद आदिक द्रव्यका स्वरूप है, इस कारण सब द्रव्योंमें है, तो फिर आत्मामें भी अवश्य हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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