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________________ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० १, गा० १७पजायमानः, उत्पत्तिव्यपेक्षया द्रव्यभावभेदभिन्नघातिकर्माण्यपास्य स्वयमेवाविर्भूतत्वाद्वा वयंभूरिति निर्दिश्यते । अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकत्वसंबन्धोऽस्ति, यतः शुद्धात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गणव्यग्रतया परतन्त्रैर्भूयते ॥१६॥ अथ स्वायंभुवस्यास्य शुद्धात्मत्वभावलाभस्यात्यन्तमनपायित्वं कथंचिदुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वं चालोचयति भंगविहीणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि। विजदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो ॥१७॥ भङ्गविहीनश्च भवः संभवपरिवर्जितो विनाशो हि।। विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः॥१७॥ चैतन्यादिगुणस्वभावात्मनः स्वयमेवाधारत्वादधिकरणं भवतीत्यभेदषट्कारकीरूपेण स्वत एव परिणममाणः सन्नयमात्मा परमात्मस्वभावकेवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे यतो भिन्नकारकं नापेक्षते ततः स्वयंभूभवतीति भावार्थः ॥१६॥ एवं सर्वज्ञमुख्यत्वेन प्रथमगाथा। स्वयंभूमुख्यत्वेन द्वितीया चेति प्रथमस्थले गाथाद्वयं गतम् । अथास्य भगवतो द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वेऽपि पर्यायार्थिकनयेनानित्यत्वमुपदिशति-भंगविहीणो य भवो स्वरूपको साधन करता है, वहाँ पर अपने अनंतज्ञानकर 'करणकारक' होता है, यह आत्मा अपने शुद्ध परिणामोंको करता हुआ अपनेको ही देता है, उस अवस्थामें शुद्ध अनंतशक्ति ज्ञायकस्वभाव कर्मकर आपको ही स्वीकार करता हुआ 'संप्रदानकारक होता है, यह आत्मा जब शुद्ध स्वरूपको पाप्त होता है, उस समय इस आत्माके सांसारीक अशुद्ध-क्षायोपशमिक मति आदि ज्ञानका नाश होता है, उसी अवस्थामें अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वभावकर स्थिरपनेको धारण करता है, तब ‘अपादानकारक' होता है । यह आत्मा जब अपने शुद्धअनंतशक्ति ज्ञायकस्वभावका आधार है, उस दशामें 'अधिकरणकारक'को स्वीकार करता है । इस प्रकार यह आत्मा आप ही षट्कारकरूप होकर अपने शुद्धस्वरूपको उत्पन्न (प्रगट) करता है, तभी स्वयंभू पदवीको पाता है । अथवा अनादिकालसे बहुत मजबूत बँधे हुए धातियाकर्मीको (ज्ञानावरण १ दर्शनावरण २ मोहनीय ३ अन्तराय ४) नाश करके आप ही प्रगट हुआ है, दूसरेकी सहायता कुछ भी नहीं ली, इस कारण स्वयंभू कहा जाता है, यहाँ पर कोई प्रश्न करे, कि परकी सहायतासे स्वरूपकी प्राप्ति क्यों नहीं होती ? उसका समाधान—कि जो यह आत्मा पराधीन होवे, तो आकुलता सहित होजाय, और जिस जगह आकुलता है, वहाँ स्वरूपकी प्राप्ति नहीं, इस कारण परकी सहायता विना ही आत्मा निराकुल होता है, इसी दशा में अपनी सहायतासे आपको पाता है। इसलिये निश्चय करके आप ही षट्कारक है । जो अपनी अनंतशक्तिरूप संपदासे परिपूर्ण है, तो वह दूसरेकी इच्छा क्यों रक्खे ? अर्थात् कभी नहीं ॥ १६ ॥ आगे इस स्वयंभू प्रभूके शुद्धस्वभावको नित्य दिखलाते हैं, और किसीप्रकारसे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य अवस्था भी दिखलाते हैं-[तस्य आत्मनः भंगविहीन: भवः विद्यते ] जो आत्मा शुद्धोपयोगके प्रसादसे स्वरूपको प्राप्त हुआ है, उस आत्माके नाशरहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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