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________________ १६] प्रवचनसारः न्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं कलयन, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन साधकतमत्वात् करणत्वमनुबिम्राणः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन कर्मणा समाश्रियमाणत्वात् संप्रदानत्वं दधानः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनसमये पूर्वप्रवृत्तविकलज्ञान खभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्वभावेन ध्रुवत्वावलम्बनादपादानत्वमुपाददानः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावस्याधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुर्वाणः, स्वयमेव षट्कारकीरूपेणोनित्यानन्दैकस्वभावेन स्वयं प्राप्यत्वात् कर्मकारकं भवति । शुद्धचैतन्यस्वभावेन साधकतमत्वात्करणकारक भवति । निर्विकारपरमानन्दैकपरिणतिलक्षणेन शुद्धात्मभावरूपकर्मणा समाश्रियमाणत्वात्संप्रदानं भवति । तथैव पूर्वमत्यादिज्ञानविकल्पविनाशेऽप्यखण्डितैकचैतन्यप्रकाशेनाविनश्वरत्वादपादानं भवति । निश्चयशुद्धस्वाधीन होकर करे, वह कर्ता, जो कार्य किया जावे, वह कर्म, जिसकर किया जावे, वह करण, जो कर्मकर दिया जावे वह संप्रदान, जो एक अवस्थाको छोड़ दूसरी अवस्थारूप होवे, वह अपादान, जिसके आधार कर्म होवे, वह अधिकरण कहा जाता है। अब दोनों कारकोंका दृष्टांत दिखलाते हैं। उनमें प्रथम व्यवहारकर इस तरह है-जैसे कुंभकार (कुम्हार) कर्ता है, घड़ारूप कार्यको करता है, इससे घट कर्म है, दंड चक्र चीवर (छोरा) आदिकर यह घट कर्म सिद्ध होता है, इसलिये दंड आदिक करण कारक हैं, जल वगैरःके भरनेके लिये घट दिया जाता है, इसलिये संप्रदानकारक है, मिट्टीकी पिंडरूपादि अवस्थाको छोड़ घट अवस्थाको प्राप्त होना अपादानकारक है, भूमिके आधार से घटकर्म किया जाता है, बनाया जाता है, इसलिये भूमि अधिकरणकारक समझना, इस प्रकार ये व्यवहार कारक हैं। क्योंकि इनमें कर्ता दूसरा है, कर्म अन्य है, करण अन्य ही द्रव्य है, दूसरे ही को देना दूसरेसे करना । आधार जुदा ही है । निश्चय छह कारक अपने आप ही में होते हैं, जैसे-मृत्तिकाद्रव्य (मट्टी) करता है, अपने घट परिणाम कर्मको करता है, इसलिये आप ही कर्म है, आप ही अपने घट परिणामको सिद्ध करता है, इसलिये स्वयं ही करण है, अपने घट परिणामको करके अपनेको ही सौंप देता है, इस कारण आप ही संप्रदान है । अपनी मृत्पिड अवस्थाको छोड़ अपनी घट अवस्थाको करता है, इसलिये आप ही अपादान है । अपनेमें ही अपने घटपरिणामको करता है, इसलिये आप ही अधिकरण है । इस तरह ये निश्चय षट्कारक हैं, क्योंकि किसी भी दूसरे द्रव्यकी सहायता नहीं है, इस कारण अपने आपमें ही ये निश्चयकारक साधे जाते हैं। इसी प्रकार यह आत्मा संसार अवस्थामें जब शुद्धोपयोगभावरूप परिणमन करता है, उस समय किसी दूसरेकी सहायता (मदद) न लेकर अपनी ही अनंत शुद्धचैतन्यशक्तिकर आप ही छह कारकरूप होके केवलज्ञानको पाता है, इसी अवस्थामें 'स्वयंभू' कहा जाता है। शुद्ध अनंतशक्ति तथा ज्ञायकस्वभाव होनेसे अपने आधीन होता हुआ यह आत्मा अपने शुद्ध ज्ञायकस्वभावको करता है, इसलिये आप ही कर्ता है, और जिस शुद्धज्ञायकस्वभावको करता है, वह आत्माका कर्म है, सो वह कर्म आप ही है, क्योंकि शुद्ध-अनंतशक्ति, ज्ञायक स्वभावकर अपने आपको ही प्राप्त होती है, वहाँ यह आत्मा ही 'कर्म' है, यह आत्मा अपने शुद्ध आत्मीक परिणामकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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