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________________ कुन्दकुन्द विरचितः [अ० १, गा० १६तह सो लद्धसहावो सव्वण्ह सव्वलोगपदिमहिदो । भूदो सयमेवादा हवदि सयंभु ति णिदिट्ठो ॥ १६ ॥ तथा स लब्धस्वभावः सर्वज्ञः सर्वलोकपतिमहितः । भूतः स्वयमेवात्मा भवति स्वयंभूरिति निर्दिष्टः ॥ १६ ॥ अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगभावनानुभावप्रत्यस्तमितसमस्तधातिकर्मतया समुपलब्धशुद्धानन्तशक्तिचित्स्वभावः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञायकस्वभावेन स्वतन्त्रत्वाद्ग्रहीत कर्तृत्वाधिकारः, शुद्धानआदा अयमात्मा हवदि सयंभु त्तिणिदिट्ठो स्वयंभूर्भवतीति निर्दिष्टः कथितः । किंविशिष्ट भूतः । सव्व सव्वलोगपदिमहिदो भूदो सर्वज्ञः सर्वलोकपतिमहितश्च भूतः संजातः । कथम् । सयमेव निश्चयेन स्वयमेवेति । तथाहि - अभिन्नकारकचिदानन्दैक चैतन्यस्वस्वभावेन स्वतन्त्रत्वात् कर्ता भवति । स आत्मा स्वयंभूः भवति इति निर्दिष्टः ] जैसे शुद्धोपयोग के प्रभावसे केवलज्ञानादि गुणों को प्राप्त हुआ था, उसी प्रकार वही आत्मा 'स्वयंभू' नामवाला भी होता है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा हैं । तात्पर्य यह है, कि जो आत्मा केवलज्ञानादि स्वाभाविक गुणोंको प्राप्त हुआ हो, उसीका नाम स्वयंभू है । क्योंकि व्याकरणकी व्युत्पत्तिसे भी जो 'स्वयं' अर्थात् आप ही से अर्थात् दूसरे द्रव्यकी सहायता विना ही ‘भवति' अर्थात् अपने स्वरूप होवे, इस कारण इसका नाम स्वयंभू कहा गया है, यह आत्मा अपने स्वरूपकी प्राप्तिके समय दूसरे कारककी इच्छा नहीं करता है । आप ही छह कारकरूप होकर अपनी सिद्धि करता है, क्योंकि आत्मामें अनंत शक्ति है, कैसा है वह [ लब्धस्वभावः] प्राप्त किया है, घातिया कर्मोंके नाशसे अनंतज्ञानादि शक्तिरूप अपना स्वभाव जिसने । फिर कैसा है ? [ सर्वज्ञः ] तीन कालमें रहनेवाले सब पदार्थोंको जाननेवाला है । फिर कैसा है ? स्वयंभू आत्मा । [ सर्वलोकपतिमहितः ] तीनों भुवनोंके स्वामी इन्द्र धरणेन्द्र चक्रवर्ती इनकर पूजित है । फिर कैसा है ? [स्वयमेव भूतः ] अपने आप ही परकी सहायता के बिना अपने शुद्धोपयोगके बलसे अनादि अविद्यासे उत्पन्न हुए अनेक प्रकारके बन्धों को तोड़कर निश्चयसे इस पदवीको प्राप्त हुआ है, अर्थात् सकल सुर, असुर, मनुष्योंके स्वामियोंसे पूज्य सर्वज्ञ वीतराग तीन लोकका स्वामी शुद्ध अपने स्वयंभूपदको प्राप्त हुआ है। (1 अब षट्कारक दिखाते हैं - कर्ता १ कर्म २ करण ३ संप्रदान ४ अपादान ५ अधिकरण ६ ये छह कारकों के नाम हैं, और ये सब दो दो तरहके हैं, एक व्यवहार दूसरा निश्चय । उनमें जिस जगह परके निमित्तसे कार्यकी सिद्धि कीजाय, वहाँ व्यवहार घट्कारक होना है, और जिस जगह अपनेमें ही अपनेको उपादान कारण कर अपने कार्यकी सिद्धि कीजावे, वहाँ निश्चय षट्कारक हैं । व्यवहार छह कारक उपचार असद्भूतनयकर सिद्धि किये जाते हैं, इस कारण असत्य हैं, निश्चय छह कारक, अपने में ही जोड़े जाते हैं, इसलिये सत्य हैं । क्योंकि वास्तवमें कोई द्रव्य किसी द्रव्यका कर्ता व हर्ता नहीं है, इसलिये व्यवहारकारक असत्य है, अपनेको आप ही करता है, इस कारण निश्चयकारक सत्य है । जो १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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