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श्रीमद् राजचन्द्र
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अवस्था ३ दिनमें सर्वोपयोगी १०८ पाठवाली 'मोक्षमाला' बनाई थी । आज तो इतनी आयुमें शुद्ध लिखना भी नहीं आता, जब की श्रीमद्जीने एक अपूर्व पुस्तक लिख डाली । पूर्वभवका अभ्यास ही इसमें कारण था । श्रीमद्जी 'मोक्षमाला ' के संबन्ध में लिखते हैं- “ इस (मोक्षमाला) में मैंने धर्म समझाने का प्रयत्न किया है; जिनोक्त मार्गसे कुछ भी न्यूनाधिक नहीं लिखा है । वीतरागमार्ग में आबालवृद्धकी रुचि हो, उसके स्वरूपको समझें तथा उसका बीज हृदयमें स्थिर हो, इस कारण इसकी बालावबोधरूप रचना की है ।
इनकी दूसरी कृति आत्मसिद्धि शास्त्र है, जिसको इन्होंने नडियाद में १ || घंटे में बनाया था । १४२ दोहोंमें सम्यग्दर्शनके कारण भूत छः पदोंका बहुत ही सुन्दर पक्षपात रहित वर्णन किया है । यह नित्य स्वाध्यायकी वस्तु है ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य के पंचास्तिकाय की मूलगाथाओंका भी इन्होंने अक्षरशः गुजरातीमें अनुवाद किया है । पाठक इस अनुवादको 'श्रीमद् राजचन्द्र' में देख सकते हैं ।
श्रीमद्जीने श्रीआनन्दघन चौबीसी का अर्थ लिखना प्रारम्भ किया था और उसमें प्रथमादि दो raria अर्थ भी विवेचन सहित किया था । पर न जाने, क्यों अपूर्ण रह गया है । संस्कृत तथा प्राकृत पर भी आपका पूरा अधिकार था। सूत्रों का अर्थ समझानेमें आप बड़े निपुण थे ।
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आत्मानुभव प्रिय होने से श्रीमद्जीने अपने शरीर की ओर विशेष ध्यान न रखा। इससे पौद्गलिक शरीर अस्वस्थ हुआ । दिन प्रतिदिन उसमें कृशता आने लगी, ऐसे अवसर पर आपसे किसीनेपूछा 'आपका शरीर कृश क्यों होता जाता है ?" श्रीमद्जी ने उत्तर दिया- 'हमारे दो बगीचे हैं, शरीर और आत्मा | हमारा सारा पानी आत्मारूपी बगीचेमें जाता है, इससे शरीररूपी बगीचा सूख रहा । वढवाण, धर्मपुर आदिस्थलों में रहकर देहके अनेक अनेक प्रकारके उपचार किए किन्तु वे सब ही निष्फल हुए । कालको महापुरुषका जीवन रुचिकर न हुआ । अनित्यवस्तुका संबन्ध भी कहाँ तक रह सकता है । जहाँ सम्बन्ध, वहाँ वियोग भी अवश्य है ।
देहत्याग के पहले दिन शामको श्रीमद्जीने श्रीरेबाशंकर आदि मुमुक्षुओंसे कहा - " तुम लोग निश्चिन्त रहना । यह आत्मा शाश्वत है । अवश्य विशेष उत्तम गतिको प्राप्त होगी । तुम शान्त और समाधि पूर्वक रहना । मैं कुछ कहना चाहता था, परन्तु अब समय नहीं है । तुम पुरुषार्थ करते रहना । "
रातको अढाई बजे अत्यन्त सर्दी हुई, उस समय श्रीमद्जीने अपने लघु भ्राता मनसुख भाईसे कहा-“भाई का समाधि मरण है । में अपने आत्मस्वरूपमें लीन होता हूँ ।" फिर वे न बोले । देह त्याग पूर्व मुमुक्षुओं ने पूछा था कि अब हमें क्या आधार है ? श्रीमद्जीने कहा था - मुनि लल्लुजी (लघु राजस्वामी) का समागम करते रहना ।
इस प्रकार श्रीमद्जीने वि. सं. १९५७ मिती चैत्र वदी ५ (गुजराती) मंगलबारको दो प्रहरके २ बजे राजकोटमें इस नश्वर शरीरका त्याग किया ।
इनके देहान्तके समाचारसे मुमुक्षुओंमें अत्यन्त शोकके बादल छा गए । अनेक समाचार पत्रोंने भी इनके लिए शोक प्रदर्शित किया था ।
श्रीमद्जीका पार्थिव शरीर आज हमारी आँखोंके सामने नहीं है । किन्तु उनका सदुपदेश जबतक लोकमें चन्द्र, सूर्य हैं, तबतक स्थिर रहेगा तथा मुमुक्षुओंको आत्म - ज्ञानमें एक महान् सहायक रूप होगा ।
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