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________________ 16* अरब घर पहुँचा, बड़े भाईसे सौदेकी बात की । वह घबराकर बोला तूने यह क्या किया । इसमें तो अपने को बहुत नुकसान है। अब क्या था । अरब श्रीमद्जीके पास आया और सौदा रव करने को कहा । व्यापारी नियमानुसार सौदा पक्का हो चुका था, अरब वापिस लेनेका अधिकारी नहीं था, फिर भी श्रीमद्जीने सौदा रद करके उसके मोती उसे वापस दे दिये । श्रीमद्जीको इस सौबेसे हजारोंका फायदा था, तो भी उन्होंने उसकी अन्तरात्माको दुखित करना अनुचित समझा और मोती लौटा दिए । कितनी निःस्पृहता, लोभवृत्तिका अभाव । आजके व्यापारियोंमें जो सत्यता आ जाय तो सरकार को नित्य नये नये नियम बनानेकी जरूरत ही न रहे और मनुष्य समाज सुखपूर्वक जीवन यापन कर सके । प्रवचनसार श्रीमद्जी की दृष्टि विशाल थी । आज भिन्न भिन्न संप्रदायवाले उनके वचनोंका रुचि सहित आदरपूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते हैं । उन्हें वाडाबन्दी पसन्द नहीं थे । वे कहा करते थे कुगुरुओंने मनुष्योंकी मनुष्यता लूट ली है, विपरीत मार्ग में रुचि उत्पन्न करा दी है, सत्य समझानेकी अपेक्षा वे अपनी मान्यताको ही समझानेका विशेष प्रयत्न करते है । सद्भाग्यसे ही जीवको सद्गुरुका योग मिलता है, पहचानना कठिन है और उसकी आज्ञानुसार प्रवर्तन तो अत्यन्त कठिन है । उन्होंने धर्मको स्वभावकी सिद्धि करने वाला कहा है, धर्मोंमें जो भिन्नता देखी जाती है, उसका कारण दृष्टिकी भिन्नता बतलाया है । इसी बात को वे स्वयं दोहोंमें प्रगट करते हैं । free भिन्न मत देखिए, भेद दृष्टि नो यह । एक तत्त्वनां मूलमां, व्याप्या मानों तेह || तेह तत्त्वरूप वृक्षनो, आत्मधर्म छे मूल । स्वभावनी सिद्धि करे, धर्म तेज अनुकूल ॥ श्रीमद्जीने इस युगको एक अलौकिकदृष्टि प्रदान की है वे रूढि या अन्धश्रद्धा के कट्टर विरोधी थे, उन्होंने आडम्बरों में धर्म नहीं माना था । मुमुक्षुओं को भी मतमतान्तर, कदाग्रह और राग द्वेष आविसे दूर रहनेका उपदेश करते थे । वीतरागताकी ओर ही उनका ध्यान था । पेढीसे अवकाश लेकर वे अमुक समय खंभात, काविठा, उत्तरसंडा, नडियाद, वसो और ईडरके पर्बत में एकान्त बास किया करते थे । मुमुक्षुओंको आत्म-कल्याणका सच्चा मार्ग बताते थे । इनके एक एक पत्र में कोई अपूर्व रहस्य भरा हुआ है । उन पत्रोंका मर्म समझनेके लिए सन्तसमागम की विशेष आवश्यकता अपेक्षित है। ज्यों ज्यों इनके लेखोंका शान्त और एकाग्र चित्तसे मनन किया जाता है, त्यों त्यों आत्मा क्षण भरके लिए एक अपूर्व आनन्दका अनुभव करता है । " 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थके पत्रोंमें ही इनका आन्तरिक जीवन अंकित है । श्रीमद्जीकी भारत में अच्छी प्रसिद्धि हुई । मुमुक्षुओंने उन्हें अपना आदर्श माना । बम्बई रहकर भी वे पत्रोंद्वारा उनकी शंकाओं का समाधान करते रहते थे 1 प्रातःस्मरणीय श्रीलघुराज स्वामी इनके शिष्योंमें मुख्य थे । श्रीमद्जीद्वारा उपदिष्ट तत्त्वज्ञानका संसारमें प्रचार हो, तथा अनादिकालसे परिभ्रमण करनेवाले जीवोंको पक्षपात रहित मोक्षमार्गको प्राप्ति हो, इस उद्देशको लक्ष्यमें रखकर, स्वामीजीके उपदेशसे श्रीमद्जीके उपासकोंने गुजरात में अगास स्टेशनके पास 'श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम' की स्थापना की, जो आज भी उन्हींकी आज्ञानुसार चल रहा है। इसके सिवाय खंभात, नरोडा, धामण, आहोर, भादरण, बवाणिया, काविठा, नार, सीमरडा आदि स्थलों में इनके नामसे आश्रम तथा मन्दिर स्थापित हुए हैं । श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, आगास, के अनुसार ही उनमें प्रवृत्ति है । अर्थात् श्रीमद्जीकी भक्ति और तत्त्वज्ञानकी प्रधानता है । श्रीमद्जी एक उच्चकोटिके असाधारण लेखक और वक्ता थे । उन्होंने १६ वर्ष और ५ मास की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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