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श्रीमद् राजचन्द्र
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उस समय चार्ल्स सारजंट बम्बई हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे। वे श्रीमदजी की इस शक्ति से बहुत ही प्रभावित हुए । सुना जाता है कि सारजंट महोदयने श्रीमदजी से इंग्लैंड चलनेका आग्रह किया था, किन्तु वे कोर्तिसे दूर रहने के कारण चार्ल्स महाशयको इच्छाके अनुकूल न हुए अर्थात् इंग्लेंड न गए ।" ।
इसके अतिरिक्त बम्बई समाचार आदि अखबारोंमें भी इनके शतावधानके समाचार प्रकाशित हए थे। बादमें, शतावधानके प्रयोगोंको आत्मचिन्तनमें अन्तरायरूप मान कर उनका करना बन्द कर दिया था । इससे सहजमें ही अनुमान किया जा सकता है कि वे कीर्ति आदिसे कितने निरपेक्ष थे । उनके जीवन में पद पद पर सच्ची धार्मिकता प्रत्यक्ष दिखाई देती थी।
वे २१ बर्षकी उम्रमें व्यापारार्थ ववाणियासे बम्बई आए । वहाँ सेठ रेवाशंकर जगजीवनदासकी दुकान में भागीदार रहकर जवाहरातका धन्धा करते रहे । व्यापारमें अत्यन्त कुशल थे। ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका इनमें यथार्थ समन्वय देखा जाता था । व्यापार करते हुए भी श्रीमद् जीका लक्ष्य आत्माको हो ओर विशेष था । इनके ही कारण उस समय मोतियों के बाजारमें श्रीयुत रेवाशंकर जगजीवनदासको पेढ़ी नामी पेढ़ीयोंमें एक गिनी जाती थी। स्वयं श्रीमद्जीके भागीदार श्रीयुत माणिकलाल घेलाभाईको इनकी व्यवहार कुशलताके लिए अपूर्व सन्मान था। उन्होंने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि-"श्रीमद् राजचन्द्रके साथ मेरा लगभग १५ वर्ष तक परिचय रहा, और उसमें सात आठ वर्ष तो मेरा उनके साथ अत्यन्त परिचय रहा था। लोगोंमें अति परिचयसे परस्परका महत्व कम हो जाता है, परन्तु मैं कहता हूँ कि उनकी दशा ऐसी आत्ममय थी कि उनके प्रति मेरा श्रद्धा भाव दिन प्रतिदिन बढ़ता ही गया । व्यापारमें अनेक कठिनाइयाँ आती थीं, उनके सामने श्रीमद्जी एक अडोल पर्वतके समान टिके रहते थे । मैंने उन्हें जड वस्तुओंकी चिन्तासे चिन्तातुर नहीं देखा । वे हमेशा शान्त और गम्भीर रहते थे । किसी विषय में मतभेद होने पर भी हृदयमें बैमनस्य नहीं था । सदैव पूर्व सा व्यवहार करते थे ।"
श्रीमद् जी व्यापारमें जैसे निष्णात थे उससे अत्यन्त अधिक आत्मतत्त्वमें निष्णात थे । उनकी अन्तरात्मा में भौतिक पदार्थोंको महत्ता नहीं थी; वे जानते थे, धन पार्थिव शरीर का साधन है, परलोक अनुयायी तथा आत्माको शाश्वत शान्तिप्रदान करने वाला नहीं है । व्यापार करते हुए भी उनकी अन्तरात्मामें बैराग्य-गंगा का अखण्ड प्रवाह निरन्तर बहता रहता था । मनुष्य भवके एक एक समयको वे अमूल्य समझते थे । व्यापार से अवकाश मिलते ही वे कोई अपूर्व आत्मविचारणामें लीन हो जाते थे । निवृत्तिको पूर्ण भावना होने पर भी पूर्वोदय कुछ ऐसा विचित्र था जिससे उनको बाह्य उपाधिमें रहना पड़ा।
__ श्रीमद् जी जबाहरातके साथ साथ मोतियोंका भी व्यापार करते थे । व्यापारी समाजमें ये अत्यन्त विश्वास पात्र समझे जाते थे। उस समय एक अरब अपने भाईके साथ रहकर बम्बईमें मोतियों की आढत का धंधा करता था । छोटे भाई के मनमें आया कि आज मैं भी बड़े भाईके समान कुछ व्यापार करूँ । परदेश से आया हुआ माल साथ में लेकर अरब बेचने निकल पड़ा । बलालने श्रीमद्जीका परिचय कराया । श्रीमद्जी ने उससे कहा-भाई, सोच समझकर भाव कहना । अरब बोला-जो मैं कह रहा हूँ, वही बाजार भाव है, आप माल खरीद करें । श्रीमदजी ने माल ले लिया तथा उसको एक तरफ रख दिया । वे मनमें जानते थे कि इसमें इसको नुकसान है, और हमें फ़ायदा । परन्तु वे किसीकी भूल का लाभ नहीं लेना चाहते थे ।
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