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________________ ११] प्रवचनसारः वस्तु परिणामोऽपि न सत्तामालम्बते । स्वाश्रयभूतस्य वस्तुनोऽभावे निराश्रयस्य परिणामस्य शून्यखप्रसंगात् । वस्तु पुनरूचंतासामान्यलक्षणे द्रव्ये सहभाविविशेषलक्षणेषु गुणेषु, क्रमभाविविशेषलक्षणेषु पर्यायेषु व्यवस्थितमुत्पादव्ययध्रौव्यमयास्तित्वेन निर्वर्तितं निर्दृत्तिमच्च । अतः परिणामस्वभावमेव ॥१०॥ - अथ चारित्रपरिणामसंपर्कसंभववतोःशुद्धशुभपरिणामयोरुपादानहानाय फलमालोचयति धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ॥११॥ धर्मेण परिणतात्मा आत्मा यदि शुद्धसंप्रयोगयुतः। पामोति निर्वाणसुखं शुभोपयुक्तो वा स्वर्गसुखम् ॥११॥ - यदायमात्मा धर्मपरिणतस्वभावः शुद्धोपयोगपरिणतिमुद्वहति तदा निःप्रत्यनीकशक्तितया लक्षणः सिद्धपर्यायरूपः शुद्धपरिणामो नास्ति । कस्मात् । संज्ञादिभेदेऽपि प्रदेशभेदाभावात् । दव्वगुणपजयत्थो आत्मस्वरूपं द्रव्यं तत्रैव केवलज्ञानादयो गुणाः सिद्धरूपः पर्यायश्च, इत्युक्तलक्षणेषु द्रव्यगुणपर्यायेषु तिष्ठतीति द्रव्यगुणपर्यायस्थो भवति । स कः कर्ता । अत्थो परमात्मपदार्थः, सुवर्णद्रव्यपीतत्वादिगुणकुण्डलादिपर्यायस्थसुवर्णपदार्थवत् । पुनश्च किंरूपः । अस्थित्तणिवत्तो शुद्दव्यगुगपर्यायाधारभूतं यच्छुद्रास्तित्वं तेन निर्वृत्तोऽस्तित्वनिर्वृत्तः, सुवर्णद्रव्यगुणपर्यायास्तित्वनिवृत्तसुवर्णपदार्थवदेवेति । अयमत्र तात्पर्यार्थः । यथा --- मुक्तजीवे द्रव्यगुणपर्यायत्रयं परस्पराविनाभूतं दर्शितं तथा संसारिजीवेऽपि मतिज्ञानादिविभावगुणेषु नरनारकादिविभावपर्यायेषु नयविमागेन यथासंभवं विज्ञेयम् , तथैव पुद्गलादिष्वपि । एवं शुभाशुभशुद्धपरिणामव्याख्यानमुख्यत्वेन तृतीयस्थले गाथाद्वयं गतम् ॥१०॥ अथ वीतरागसरागचारित्रसंज्ञयोः शुद्धशुभोपयोगपरिणामयोः है, वह पदार्थ [ अस्तित्वनिर्वत्तः] अस्तिपने ( मौजूदगी ) से सिद्ध होता है। भावार्थ-जिस जगह द्रव्य गुण पर्यायोंकी एकता हो, वहांपर ही द्रव्यका अस्तित्व है । जो इन तीनोंमेंसे एक भी कम होवे, तो पदार्थ ही न कहलावे। जैसे सुवर्ण द्रव्य है, और उसमें पीतादिगुण हैं, तथा कुण्डलादि पर्याय हैं जो इनमेंसे एककी भी कमी होती है, तो सोनेका अभाव ही होजाता है, ठीक इसी प्रकार दूसरे पदार्थों में भी ऐसा ही स्वरूप समझना। इससे यह बात सिद्ध हुई कि, परिणाम द्रव्यका पर्याय है। इसके बिना द्रव्यका अभाव होजाता है। यहाँपर इतनी विशेषता और भी समझना कि, जहाँ जैसा द्रव्य होता है, वहाँपर वैसे ही गुण पर्याय होते हैं, इस न्यायसे शुद्ध आत्माके शुद्ध गुण पर्याय और अशुद्ध आत्माके अशुद्ध गुण पर्याय होते हैं । जहाँ यह आत्मा शुभ अशुभ परिणामरूप परिणमता है, वहाँ इन अपने परिणामोंसे व्याप्य व्यापकरूप होता हुआ उसी स्वरूप हो जाता है। जब शुद्धपरिणामोरूप परिणमन करता है, तब उन्हीं स्वरूप होजाता है । क्योंकि परिणाम द्रव्यका स्वभाव है ॥ १०॥ आगे शुभपरिणाम और शुद्धपरिणाम ये दोनों चारित्र हैं, इनके फलको कहते हैं[यदि आत्मा शुद्धसंप्रयोगयुतः तदा निर्वाणसुखं प्राप्नोति ] जब आत्मा शुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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