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________________ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० १, गा० ११ः-- स्वकार्यकरणसमर्थचारित्रः साक्षान्मोक्षमवानोति । यदा तु धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभोपयोगपरिणत्या संगच्छते तदा सप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणासमर्थः कथंचिद्विरुद्धकार्यकारिचारित्रः शिखितप्तघृतोपसिक्तपुरुषो दाहदुःखमिव स्वर्गसुखबन्धमवामोति । अतः शुद्धोपयोग: उपादेयः शुभोपयोगो हेयः ॥ ११ ॥ संक्षेपेण फलं दर्शयति-धम्मेण परिणदप्पा अप्पा धर्मेण परिणतात्मा परिणतस्वरूपः सन्नयमात्मा जदि सुद्धसंपयोगजुदो यदि चेच्छुद्धोपयोगाभिधानशुद्धसंप्रयोगपरिणामयुतः परिणतो भवति पावदि णिवाणसुहं तदा निर्वागसुखं प्राप्नोति । मुहोबजुत्तो व सग्गसुहं शुभोपयोगयुतः परिणतः सन् स्वर्गसुखं प्राप्नोति । इतो विस्तरम् -इह धर्मशब्देनाहिंसालक्षणः सागारानगाररूपस्तथोत्तमक्षमादिलक्षणो रत्नत्रयात्मको वा, तथा मोहक्षोभरहित आत्मपरिणामः शुद्भवस्तुस्वभावश्चेति गृह्यते । स एव धर्मः पर्यायान्तरेण चारित्रं भण्यते । ‘चारित्त खलु धम्मो' इति वचनात् । तच्च चारित्रमपहृतसंयमोपेक्षासंयमभेदेन सरागवीतरागभेदेन वा शुभोपयोगशुद्धोपयोगभेदेन च द्विधा भवति । तत्र यच्छुद्धसंप्रयोगशब्दवाच्यं शुद्धोपयोगस्वरूपं वीतरागचारित्रं तेन निर्वाणं लभते । निर्विकल्पसमाधिरूपशुद्धोपयोगशक्तयभावे सति यदा शुभोपयोगरूपसरागचारित्रेग परिणमति तदा पूर्वमनाकुलत्वलक्षगपारमार्थिकसुखविपरीतमाकुलत्वोत्पादकं स्वर्गसुखं लभते । पश्चात् परमसमाधिसामग्रीसद्भावे मोक्षं च लभते इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ अथ चारित्रपरिणामासंभवादत्यन्तहेयस्याउपयोग सहित होता है, तब मोक्षसुखको पाता है। [ वा शुभोपयुक्तः ] और जब शुभोपयोगरूप भावोंमें परिणमता है, तब [स्वर्गसुखं ] स्वर्गोंके सुख पाता है । कैसा हैं, यह आत्मा [धर्मपरिणतात्मा] धर्मसे परिणमा है, स्वरूप जिसका । भावार्थ-वीतराग सराग भावोंकर धर्म दो प्रकारका हैं । जब यह आत्मा वीतराग आत्मीक धर्मरूप परिणमता हुआ शुद्धोपयोगभावोंमें परिणमन करता है, तब कर्मोंसे इसकी शक्ति रोकी नहीं जासकती। अपने कार्य करनेको समर्थ हो जाता हैं। इस कारण अनन्त अखण्ड निजसुख जो मोक्षसुख उसको स्वभाव ही से पाता है, और जब यह आत्मा, दान, पूजा, व्रत, संयमादिरूप सरागभावोंकर परिणमता हुआ शुभोपयोग परिणतिको धारण करता है, तब इसकी शक्ति कर्मोंसे रोकी जाती है । इसलिये मोक्षरूपी कार्य करनेको असमर्थ हो जाता है। फिर उस शुभोपयोग परिणमनसे कर्मबन्धरूप स्वर्गौके सुखोंको ही पाता है । यद्यपि शुभोपयोग चारित्रका अंग है, तो भी अपने सुखसे उलटा परके आधीन संसारसंबन्धी इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले सुखका कारण है । क्योंकि यह राग-कषायसे मिला हुआ है, और जो इन्द्रियजन्य सुख है, वह वास्तवमें दुःख ही है। जैसे कोई पुरुष गरम धी अपनी देहपर डालता है, तो उससे वह दाहके दुःखको पाता है। ऐसे घीके भी लगनेसे कुछ शांतपना नहीं होता । जिस तरह केवल आगके जलनेसे दुःख होता है, वैसा ही दुःख इस गरम घीसे भी होता है । इसलिये इन्द्रियजनित सुखको गरम घीके समान जानना चाहिये । अर्थात् यह शुभोपयोग भी संसारके फलको देता है, इस कारण अशुभोपयोगके समान त्यागने योग्य है, ओर शुद्धोपयोग, आत्मीकसुखको ‘कि जिसमें किसी तरहकी भी आकुलता नहीं है' देता है,। इसलिये उपादेय है ॥ ११ ॥ आगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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