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________________ श्रीगोडीपार्वजिनवृद्धस्तवन । १७३ थंभ थंभ कीधी पूतली, नाटक कौतुक करती रली । रंगमंडप रलियामणो रचै, जोतां मानवनो मन वसै ॥३५॥ नीपायो पूरो प्रासाद, स्वर्ग समो मंडे आवास । दिवस विचारी इण्डो घडयो, ततखिण देवल ऊपर चड्यो ॥३६॥ शुभ लगन शुभ वेला वास, पव्वासण बैठा श्रीपास । महिमा मोटी मेरुसमान, · एकलमल वगडे रहैवान ॥३७॥ वात पुराणी मैं सांभली, तवन मांहि सूधी सांकली। गोठी तणा गोतरिया अछ, यात्रा करीने परणे पछै ॥३८॥ (दोहा) विधनविडारन यक्ष जग, तेहनो अकल सरूप । प्रीत करै श्रीसंघने, देखाडे निज रूप ॥३९॥ गिरुओ गौडी पास जिन, आपै अरथभंडार । सानिध करें श्रीसंघने, आशा पूरणहार ॥४०॥ नील पलाणै नील हय, नीलो थइ असवार । मारग चूका मानवी, वाट दिखावणहार ॥४१॥ (ढाल) वरण अढार तणो लहै भोग, विघन निवारै टालै रोग। पवित्र थई समरे जे जाप, टालै सगला पाप संताप ॥४२॥ निरधनने घर धननो सूत, आपै अपुत्रीयाने पुत्र । कायरने सूरापण धरै, पार उतारे लच्छी वरै ॥४३॥ दोभागीने दै सोभाग, पग विहूणाने आपै पग । ठाम नहीं तेहने यै ठाम, मन वञ्छित पूरे अभिराम ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003287
Book TitleNavsmaranadisangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVicharshreeji, Damayantishreeji
PublisherNagindas Kevalshi Shah Ahmedabad
Publication Year1964
Total Pages258
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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