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बनते थे । इस प्रकारका लकीर खींचनेकी तरफका मुँह जुजवलसे मिलताजुलता होता है जिससे गोल आकृति खींचनेके लिये उसमें स्याही ठहर सके ।
लिपि
जैन ज्ञानभाण्डारगत शास्त्रोंकी लिपिकी पहचान कुछ विद्वान् जैन लिपिके नामसे कराते हैं । सामान्यतः लिपिका स्वरूप प्रारम्भमें एक जैसा होने पर भी समय के प्रवाहके साथ विविध स्वभाव, विविध देश एवं लिपियोंके सम्पर्क और विभिन्न परिस्थिति के कारण वह भिन्न भिन्न नामसे पहचानी जाती है । यही सिद्धान्त जैन- लिपिके बारेमें भी लागू होता है । उदाहरणार्थ, हम भारतवर्षकी प्रचलित लिपियों को ही देखें । यद्यपि ये सब एक ही ब्राह्मी लिपिनी सहोदर लड़कियाँ है फिर भी आज तो वे सब सौतिली लड़कियाँ जैसी बन गई हैं । यही बात इस समय प्रचलित हमारी देवनागरी लिपिक भी लागू होती है जो कि हिन्दी, मराठी, ब्राह्मण और जैन आदि अनेक विभागों में विभक्त हो गई है। जैन-लिपि भी लेखनप्रणालीके वैविध्यको लेकर यतियोंकी लिपि, खरतर गच्छको लिपि, मारवाड़ी लेखकोंकी लिपि, गुजराती लेखकों की लिपि आदि अनेक विभागों में विभक्त है । ऐसा होने पर भी वस्तुतः यह सारा लिपिभेद लेखनप्रणालीके ही कारण पैदा हुआ है। बाक्नी, लिपिके मौलिक स्वरूपकी जिसे समझ है उसके लिये जैन लिपि जैर्स कोई वस्तु ही नहीं है। प्रसंगोपात्त हम यहाँ पर एक ॐकार अक्षर ही लें जैन-लिपि और मराठी, हिन्दी आदि लिपिमें भिन्न भिन्न रूपसे दिखाई देनेवाले इस अक्षर के बारे में यदि हम नागरी लिपिका प्राचीन स्वरूप जानते हों ते सरलतासे समझ सकते हैं कि सिर्फ़ अक्षरके मरोडमेंसे ही ये दो आकृति भेद पैदा हुए हैं । वस्तुतः यह कुछ जैन या वैदिक ॐकारका भेद ह नहीं है । लिपिमाला की दृष्टिसे ऐसे तो अनेक उदाहरण हम दे सकते हैं इसलिये यदि हम अपनी लिपिमालाके प्राचीन अर्वाचीन स्वरूप जान है तो लिपि-सेना हमारे सामने उपस्थित ही नहीं होती। जै
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