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संगोष्ठी के आलेखों के सारांश सिद्धसेनदिवाकर का भारतीयदर्शन को अवदान
- प्रो. सागरमल जैन
सिद्धसेन दिवाकर जैन दर्शन के शीर्षस्थ विद्वान् रहे हैं। जैनदर्शन के क्षेत्र में अनेकान्तवाद की तार्किक स्थापना करने वालों वे प्रथम पुरूष हैं। जैनदर्शन के आद्य तार्किक होने के साथ-साथ वे भारतीय दर्शनों के आद्य संग्राहक और समीक्षक भी हैं। उन्होंने अपनी कृतियों में विभिन्न भारतीय दर्शनों की तार्किक समीक्षा भी प्रस्तुत की है। ऐसे महान् दार्शनिक के जीवनवृत्त और कृतित्व के सम्बन्ध में तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में रचित प्रबन्धों के अतिरिक्त अन्यत्र मात्र सांकेतिक सूचनाएँ ही मिलती हैं। यद्यपि उनके अस्तित्व के सन्दर्भ में हमें अनेक प्राचीन ग्रन्थों में संकेत उपलब्ध होते हैं। लगभग चतुर्थ शताब्दी से ही जैन ग्रन्थों में उनके और उनकी कृतियों के सन्दर्भ हमें उपलब्ध होने लगते हैं। फिर भी उनके जीवनवृत्त और कृतित्व के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी का अभाव ही है। यही कारण है कि उनके जीवनवृत्त, सत्ताकाल, परम्परा तथा कृतियों को लेकर अनेक आज भी प्रचलित हैं। यद्यपि पूर्व में पं. सुखलालजी, प्रो. ए.एन. उपाध्ये, पं.जुगलकिशोर जी मुख्तार आदि विद्वानों ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के सन्दर्भ में प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है, किन्तु इन विद्वानों की परस्पर विरोधी स्थापनाओं के कारण विवाद अधिक गहराता ही गया ।'
जहाँ तक सिद्धसेन के भारतीयदर्शन को अवदान का प्रश्न है ? उन्होंने अन्य दर्शनों के एकान्तवाद की समीक्षा करके अनेकान्तवाद की स्थापना की है। अनेकांतवाद के तार्किक प्रस्तुतीकरण के वे आद्य जैनाचार्य माने जाते हैं। इस सम्बन्ध में उनकी दार्शनिककृति सन्मतितर्कप्रकरण
20/भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान
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