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________________ ग्रन्थ की रचना करे। उमास्वाति के पश्चात् सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि ने भी जैन दर्शन पर ग्रन्थ लिखे । सिद्धसेन दिवाकर ने भारतीय दार्शनिक अवधारणाओं की समीक्षा को लेकर कुछ द्वात्रिशिंकाओ की रचना संस्कृत भाषा में की थी जिनमें न्यामवतार प्रमुख है । यद्यपि अनेकांतवाद की स्थापना हेतु उन्होनें प्राकृत में सन्मतितर्कप्रकरण की रचना की । सिद्धसेन ने जैन न्याय को व्यवस्थित रूप प्रदान किया । इसी प्रकार दिगम्बर आचार्य समन्तभद्र ने भी आप्तमीमांसा, युक्त्यानुशासन एवं स्वयम्भूस्तोत्र नामक दार्शनिक ग्रन्थों की रचना संस्कृत भाषा में की। आप्तमीमांसा में अन्य भारतीय दर्शनों की समीक्षा भी की गई। इसी प्रकार ईसा की चौथी - पॉचवी शताब्दी में जैन दार्शनिक साहित्य लिखा जाने लगा। उमास्वाति ने स्वयं ही तत्त्वार्थसूत्र के साथ-साथ उसका स्वोपज्ञ भाष्य भी लिखा था, किन्तु उन्होनें अन्य दर्शनों की समीक्षा नहीं की, मात्र जैन दर्शन का तर्क पुरस्सर विधान किया । लगभग 5 वीं शताब्दी के अन्त और 6वीं शताब्दी के प्रारम्भ में दिगम्बराचार्य पूज्यपाद देवनन्दि ने तत्त्वार्थसूत्र पर 'सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका लिखी। इसके अतिरिक्त उन्होंने जैन - साधना के सन्दर्भ में 'समाधि तंत्र' और 'इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ भी लिखे । इसी काल खण्ड में श्वेताम्ब परम्परा में मल्लवादी ने द्वादशारनयचक्र की रचना की जिसमें प्रमुख रू‍ से सभी भारतीय दार्शनिक परम्पराएँ पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत की गई औ उन्हीं में से उनकी विरोधी धारा को उत्तरपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर उनक समीक्षा भी की गई। इसके पश्चात् 6वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जिनभद्र क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य प्राकृत में लिखा, किन्तु उसकी स्वोपा टीका संस्कृत में लिखी थी। उन्होंने अन्य दर्शनों की समीक्षा के स्थान ए जैन दार्शनिक मान्यताओं के प्रति सम्भावित शंकाओ के निराकरण व प्रयत्न किया। उनके पश्चात 7वीं शती के प्रारम्भ में कोट्टाचार्य ने विशेषावशयकभाष्य पर संस्कृत भाषा में टीका लिखी थी जो प्राची भारतीय दार्शनिक मान्यताओं का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करती है, साथी उनकी समीक्षा भी करती है। लगभग 7वीं शताब्दी में ही सिद्धसेनगणिने श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की टीका लिखी। इसी समय द्वादशारनयक की संस्कृत भाषा में सिंहशूरगणि ने टीका भी लिखी थी । 8वीं शताब्दमें 16 / भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003248
Book TitleBhartiya Darshan ko Jain Darshaniko ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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