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समग्ररूपेण विकास नहीं हो पाया था। इस कालखण्ड में और विशेष रूप से अर्धमागधी आगमों में प्रमाण के कुछ निर्देश भी मिलते हैं, किन्तु वे न्याय दर्शन की प्रमाण चर्चा का मात्र पूर्व रूप ही कहे जा सकते हैं। उस युग में प्रमाण शब्द का प्रयोग परिमाण या मात्रा के अर्थ में ही देखा जाता है, यद्यपि चार प्रमाणों का भी उल्लेख है, किन्तु वे वही हैं, जो नैयायिकों मान्य है। मैंने अपने एक शोध आलेख में इसकी विस्तृत चर्चा की है। इस कालखण्ड में सांख्य और योगदर्शन का भी प्रभाव देखा जाता है। सांख्य दर्शन का प्रभाव मुख्यतः कुन्दकुन्द के समयसार पर और योगसूत्र का प्रभाव तत्त्वार्थसूत्र की रचना में देखा जाता है। यद्यपि इस युग के जैन चिन्तन ने उन्हें भी प्रभावित किया था। तुलनात्मक दृष्टि से यह अध्ययन आज भी उपेक्षित है। जहाँ तक तत्त्व मीमांसा का प्रश्न है- जैनों की कुछ मौलिक अवधारणाएँ है जैसे- पंचास्तिकाय, षट्जीवनिकाय, नवतत्त्व, नयवाद आदि जो इस कालखण्ड में उपस्थित पाई जाती है। फिर भी दार्शनिक चिन्तन का पूर्ण विकास तो दर्शन युग में हुआ। इस युग में जैन तत्त्व मीमांसा में जो अर्थ विकास और परिवर्तन हुए उनकी चर्चा मैने " जैन तत्त्व मीमांसा का ऐतिहासिक विकास क्रम" नामक स्वतंत्र आलेख में किया है। इस कालखण्ड की तीन विशेषताएँ हैं- 1. पंचास्तिकाय में धर्मास्तिकाय
और अधर्मास्तिकाय के अर्थ में परिवर्तन किया गया, उन्हे क्रमशः गति और स्थिति का नियामक माना गया। दूसरे पंचास्तिकायों में काल को अनस्तिकाय के रूप में मानकर षट् द्रव्यों की अवधारणा का विकास हुआ। दर्शन युग
यद्यपि जैन तत्त्वज्ञान से संबधित विषयों का प्रतिपादन आगमों में कीर्ण रूप में मिलता है, किन्तु सभी आगम प्राकृत में ही निबद्ध है। जैन त्त्वज्ञान से संबधित प्रथम सूत्र ग्रन्थ की रचना उमास्वाति ने संस्कृत भाषा
की और यहीं से दर्शनयुग का प्रारम्भ होता है। उमास्वाति के काल तक विध भारतीय दार्शनिक निकायों के सूत्र ग्रन्थ अस्तित्व में आ चुके थे, से वैशेषिक सूत्र, सांख्यसूत्र, योगसूत्र, न्यायसूत्र, आदि। अतः उमास्वाति वलिए यह आवश्यक था कि वे जैन धर्म-दर्शन से संबधित विषयों को व्यस्थित रूप से समाहित करते हुए सूत्र-शैली में संस्कृत भाषा में किसी
भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान/15
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