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नहीं है ।
जैनेतर परंपराओं में दर्शनसंग्राहक ग्रंथों में दूसरा स्थान माधवाचार्य (ई. 1350 के लगभग) के 'सर्वदर्शनसंग्रह' का आता है । किंतु, 'संर्वदर्शनसंग्रह' की मूलभूत दृष्टि भी यही है कि वेदांत ही एकमात्र सम्यक दर्शन है । 'सर्वसिद्धांतसंग्रह' और 'सर्वदर्शनसंग्रह' दोनों की हरिभद्र के 'षड्दर्शनसमुच्चय' से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहां हरिभद्र बिना किसी खंडन-मंडन के निरपेक्ष भाव से तत्कालीन विविध दर्शनों को प्रस्तुत करते हैं, वहां वैदिक परंपरा के इन दोनों ग्रंथों की मूलभूत शैली खंडनपरक ही है । अतः इन दोनों ग्रंथों में अन्य दार्शनिक मतों के प्रस्तुतीकरण में वह निष्पक्षता और उदारता परिलक्षित नहीं होती है, जो हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में हैं ।
वैदिक परंपरा में दर्शनसंग्राहक ग्रंथों में तीसरा स्थान माधव सरस्वतीकृत 'सर्वदर्शनकौमुदी' का आता है । इस ग्रंथ में दर्शनों को वैदिक और अवैदिक - ऐसे दो भागों में बांटा गया है। अवैदिक दर्शनों में चार्वाक, बौद्ध और जैन - ऐसे तीन भेद तथा वैदिक दर्शन में तर्क, तंत्र और सांख्य- ऐसे तीन भाग किए गए है । इस ग्रंथ की शैली भी मुख्यरूप से खंडनात्मक ही है । अतः हरिभद्र के 'षड्दर्शनसमुच्चय' जैसी उदारता और निष्पक्षता इसमें भी परिलक्षित नहीं होती है ।
वैदिक परंपरा के दर्शनसंग्राहक ग्रंथों में चौथा स्थान मधुसूदन सरस्वती के 'प्रस्थानभेद' का आता है । मधुसूदन सरस्वती ने दर्शनों का वर्गीकरण आस्तिक और नास्तिक के रूप में किया है । नास्तिकअवैदिक दर्शनों में वे छह प्रस्थानों का उल्लेख करते हैं । इसमें बौद्ध दर्शन के चार संप्रदाय तथा चार्वाक और जैनों का समावेश
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हुआ है । आस्तिक
वैदिक दर्शनों में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व-मीमांसा और उत्तर-मीमांसा का समावेश हुआ है । इन्होंने पाशुपत दर्शन एवं वैष्णव दर्शन का भी उल्लेख किया है । पंडित दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार प्रस्थानभेद के लेखक की एक विशेषता अवश्य है, जो उसे पूर्व - उल्लिखित वैदिक परंपरा के अन्य दर्शनसंग्राहक ग्रंथों से अलग करती है । वह यह कि इस ग्रंथ में वैदिक दर्शनों के पारस्परिक विरोध
भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान / 11
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