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________________ मान्यताओं को निष्पक्ष रूप से एक ही ग्रंथ में प्रस्तुत किया है। हरिभद्र के 'षड्दर्शनसमुच्चय' की कोटि का और उससे प्राचीन दर्शनसंग्राहक कोई अन्य ग्रंथ हमें प्राचीन भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। हरिभद्र के पूर्व तक जैन, बौद्ध और वैदिक-तीनों ही परंपराओं के किसी भी आचार्य ने अपने काल के सभी दर्शनों का निष्पक्ष परिचय देने की दृष्टि से किसी भी ग्रंथ की रचना नहीं की थी। उनके ग्रंथों में अपने विरोधी मतों का प्रस्तुतीकरण मात्र उनके खंडन की दृष्टि से ही हुआ है। जैन परंपरा में भी हरिभद्र के पूर्व सिद्धसेन दिवाकर और समंतभद्र ने अन्य दर्शनों के विवरण तो प्रस्तुत किए हैं, किंतु उनकी दृष्टि भी खंडनपरक ही है। विविध दर्शनों का विवरण प्रस्तुत करने की दृष्टि से मल्लवादी का 'नयचक्र' महत्त्वपूर्ण ग्रंथ कहा जा सकता है, किंतु उसका मुख्य उद्देश्य भी प्रत्येक दर्शन की अपूर्णता को सूचित करते हुए अनेकांतवाद की स्थापना करना है। पंडित दलसुखभाई मालवणिया के शब्दों में (नय) चक्र की कल्पना के पीछे आचार्य का आशय यह है कि कोई भी मत अपने आप में पूर्ण नहीं है। जिस प्रकार उस मत की स्थापना दलीलों से हो सकती है उसी प्रकार उसका उत्थान भी विरोधी मतों की दलीलों से हो सकता है। स्थापना और उत्थान का यह चक्र चलता रहता है। अतएव अनेकांतवाद में ये मत यदि अपना उचित स्थान प्राप्त करें- तभी उचित है, अन्यथा नहीं। 'नयचक्र' की मूलदृष्टि भी स्वपक्ष अर्थात् अनेकांतवाद के मंडन और परपक्ष के खंडन की ही है। इस प्रकार जैन परंपरा में भी हरिभद्र के पूर्व तक निष्पक्ष भाव से कोई भी दर्शनसंग्राहक नहीं लिखा गया। जैनेतर परंपराओं के दर्शनसंग्राहक ग्रंथों में आचार्य शंकर विरचित माने जाने वाले 'सर्वसिद्धांतसंग्रह' का उल्लेख किया जा सकता है। यद्यपि यह कृति माधवाचार्य के 'सर्वदर्शनसंग्रह' की अपेक्षा प्राचीन है। फिर भी इसमें आद्य पूर्वदर्शन का उत्तरदर्शन के द्वारा निराकरण करते हुए अंत में अद्वैत वेदांत की स्थापना की गई है। अतः किसी सीमा तक इसकी शैली को भी 'नयचक्र' की शैली के साथ जोड़ा जा सकता है, किंतु जहां 'नयचक्र' अंतिम मत का भी प्रथम मत से खंडन करवा कर किसी भी एक दर्शन को अंतिम सत्य नहीं मानता है, वहां 'सर्वसिद्धांतसंग्रह वेदांत को एकमात्र और अंतिम सत्य स्वीकार करता है । अतः यह एक दर्शनसंग्राहक ग्रंथ होकर भी निष्पक्ष दृष्टि का प्रतिपादक नहीं माना जा सकता है । हरिभद्र के 'षड्दर्शनसमुच्चय' की जो विशेषता है- वह इसमें 10/भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003248
Book TitleBhartiya Darshan ko Jain Darshaniko ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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