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यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन है। उसमें कहा गया है कि जीवात्मा अग्निकुण्ड है; मन, वचन, काया की प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच) है और कर्मों (पापो) का नष्ट करना ही आहुति है, यही यज्ञ शान्तिदायक है और ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की है। ३५ तीर्थ स्नान को भी आध्यात्मिक अर्थ प्रदान करते हुए कहा गया है-धर्म जलाशय है, ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है, उसमें स्नान करने से ही आत्मा निर्मल और शुद्ध हो जाती है । ३६
(द) दान, दक्षिणा आदि के स्थान पर संयम की श्रेष्ठता - यद्यपि जैन परम्परा ने धर्म के चार अंगो में दान को स्थान दिया है किन्तु वह यह मानती है कि दान की अपेक्षा भी संयम ही श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि प्रतिमास सहस्रों गायों का दान करने की अपेक्षा संयम का पालन अधिक श्रेष्ठ है। ३७
इस प्रकार हम देखते है कि जैन परम्परा ने धर्म को रूढ़िवादिता और कर्मकाण्डों से मुक्त करके अध्यात्मिकता से सम्पन्न बनाया है।
आध्यात्म और विज्ञान : सह सम्बन्ध
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औपनिषदिक ऋषिगण, बुद्ध और महावीर भारतीय अध्यात्म परम्परा के उन्नायक रहे हैं। उनके आध्यात्मिक चिन्तन ने भारतीय मानस को आत्मतोष प्रदान किया है । किन्तु आज हम विज्ञान के युग में जीवन जी रहे हैं। वैज्ञानिक उपलब्धियाँ भी आज हमें उद्वेलित कर रही हैं। आज का मनुष्य दो तलों पर जीवन जी रहा है । यदि विज्ञान को नकारता है तो जीवन की सुख-सुविधा और समृद्धि के खोने का खतरा है । दूसरी ओर अध्यात्म को नकारने पर आत्म शान्ति से वंचित होता है । आज आवश्यकता है इन ऋषि-महर्षियों द्वारा प्रतिस्थापित आध्यात्मिक मूल्यों और आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों के समन्वय की । निश्चय ही 'विज्ञान और आध्यात्म' की चर्चा आज प्रासंगिक है ।
सामान्यतया आज विज्ञान और अध्यात्म को परस्पर विरोधी अवधारणाओं के रूप में देखा जाता है । आज जहाँ अध्यात्म को धर्मवाद और पारलौकिता के साथ जोड़ा जाता है, वहाँ विज्ञान को भौतिकता और इहलौकिकता के साथ जोड़ा जाता है। आज
जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक संदर्भ में :
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