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________________ भिक्षुणी को अकेले भिक्षार्थ जाना वर्जित कर दिया गया था । भिक्षुणी तीन या उससे अधिक संख्या में भिक्षा के लिए जा सकती थी। साथ में यह भी निर्देश था कि युवा भिक्षुणी वृद्ध भिक्षुणी को साथ लेकर जाए। जहाँ भिक्षु 6 किलोमीटर भिक्षा के लिए सकता था, वह भिक्षुणी के लिए सामान्य परिस्थितियों में भिक्षा के लिए अतिदूर जाना निषिद्ध था । इसी प्रकार भिक्षुणियों के लिए सामान्यतया द्वाररहित उपाश्रयों में ठहरना भी वर्जित था। इन सबके पीछे मुख्य उद्देश्य नारी के शील की सुरक्षा थी । क्योंकि शील ही नारी के सम्मान का आधार था। अतः उसकी शील सुरक्षा हेतु विवध नियमों और अपवादों का सृजन किया गया है । नारी की शील- सुरक्षा के लिए जैन आचार्यों ने एक ओर ऐसे नियमों का सृजन किया जिसके द्वारा भिक्षुणियों का पुरूषों और भिक्षुओं से सम्पर्क सीमित किया जा सके, ताकि चारित्रिक स्खलन की सम्भावनाएं अल्पतम हों। फलस्वरूप न केवल भिक्षुणियों का भिक्षुओं के साथ ठहरना और विहार करना निषिद्ध माना गया, अपितु ऐसे स्थलों पर भी निवास वर्जित माना गया, जहाँ समीप में ही भिक्षु अथवा गृहस्थ निवास कर रहे हों । भिक्षुओं से बातचीत करना और उनके द्वारा लाकर दिये जाने वाले वस्त्र, पात्र एवं भिक्षादि को ग्रहण करना भी उनके लिए निषिद्ध ठहराया गया । आपस में एक दूसरें का स्पर्श तो वर्जित था ही, उन्हें आपस में अकेले में बातचीत करने का भी निषेध किया गया था । यदि भिक्षुओं से वार्तालाप आवश्यक भी हो, तो भी अग्र- भिक्षुणी को आगे करके संक्षिप्त वार्तालाप की अनुमति प्रदान की गयी थी । वस्तुतः ये सभी नियम इसलिए बनाये गये थे, कि कामवासना जागृत होने एवं चारित्रिक स्खलन के अवसर उपलब्ध न हो अथवा भिक्षुओं एवं गृहस्थों के आकर्षण एवं वासना की शिकार बनकर भिक्षुणी की शील की सुरक्षा खतरे में न पड़े । किन्तु दूसरी ओर उनकी शील सुरक्षा के लिए आपवादिक स्थितियों में उनका भिक्षुओं के सान्निध्य में रहना एवं यात्रा करना विहित भी मान लिया गया था। यहाँ तक कहा गया कि आचार्य, युवा भिक्षु और वृद्धा भिक्षुणियाँ तरूण भिक्षुणियों को अपने संरक्षण में लेकर यात्रा करें। ऐसी यात्राओं में पूरी रचना करके यात्रा की जाती थी - सबसे आगे आचार्य एवं वृद्ध भिक्षुगण, उनके पश्चात् युवा भिक्षु, फिर वृद्ध भिक्षुणियाँ, उनके पश्चात् युवा भिक्षुणियाँ पुनः उनके पश्चात् वृद्ध भिक्षुणियाँ और अन्त में युवा भिक्षु होते थे । निशीथचूर्णि आदि में ऐसे भी उल्लेख हैं कि Jain Education International जैन धर्म में नारी की भूमिका : 33 For Private & Personal Use Only 5 www.jainelibrary.org
SR No.003244
Book TitleJain Dharm me Nari ki Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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