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________________ संरक्षक अर्थात् माता-पिता, पति, पुत्र की अनुज्ञा न मिलने पर भी उन्हें संघ में प्रवेश नहीं दिया जाता था। किन्तु सुरक्षा प्रदान करने के लिए विशेष परिस्थितियों में ऐसी स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी जाती थी। निरवायलिकासूत्र के अनुसार सुभद्रा ने अपने पति की आज्ञा के विरूद्ध ही भिक्षुणी संघ में प्रवेश कर लिया था। यद्यपि स्थानांग के अनुसार गर्भिणी स्त्री का भिक्षुणी संघ में प्रवेश वर्जित था, किन्तु उत्तराध्ययननियुक्ति, आवश्यकचूर्णी में ऐसे संकेत भी मिलते हैं, जिनके अनुसार कुछ स्त्रियों ने गर्भवती होने पर भी भिक्षुणी संघ में दीक्षा ग्रहण कर ली थी। मदनरेखा अपने पति की हत्या कर दिये जाने पर जंगल में भाग गयी और वहीं उसने भिक्षुणी संघ में प्रवेश ले लिया। इसी प्रकार पद्मावती और यशभद्रा ने गर्भवती होते हुए भी भिक्षुणी संघ में प्रवेश ले लिया था और बाद में उन्ह पुत्र प्रसव हुए। वस्तुत: इन अपवाद नियमों के पीछे जैन आचाया की मूलदृष्टि यह थी कि नारी और गर्भस्थ शिशु का जीवन सुरक्षित रहें, क्योंकि ऐसी स्थितियों में यदि उन्हें संघ में प्रवेश नहीं दिया जाता हैं, तो हो सकता था कि उनका शील और जीवन खतरे में पड़ जाय और किसी स्त्री के शील और जीवन को सुरक्षित रखना संघ का सर्वोपरि कर्तव्य था। अत: हम कह सकते हैं कि नारी के शील एवं जीवन की सुरक्षा और उसके आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्य रखते हेतु पति की अनुमति के बिना अथवा गर्भवती होने की स्थिति में भी उन्हें जो भिक्षुणी संघ में प्रवेश दिया जाता था - यह नारी के प्रति जैन संघ की उदार एवं गरिमापूर्ण दृष्टि ही थी। सामान्यतया साधना की दृष्टि से भिक्षु-भिक्षुणियों के आहार, भिक्षाचर्या, उपासना आदि से सम्बन्धित नियम समान ही थे, किन्तु स्त्रियों की प्रकृति और सामाजिक स्थिति को देखकर भिक्षुणियों के लिए वस्त्र के सम्बन्ध में कुछ विशेष नियम बनाये गये। उदाहरण के लिए जहाँ भिक्षु सम्पूर्ण वस्त्रों का त्याग कर रह सकता था वहाँ भिक्षुणी के लिए नग्न होना वर्जित मान लिया गया था। मात्र यही नहीं उसकी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उसकी वस्त्र-संख्या में भी वृद्धि की गयी थी। जहाँ भिक्षु के लिए अधिकतम तीन वस्त्रों का विधान था वहाँ भिक्षुणी के लिए चार वस्त्रों को रखने का विधान था। आगे चलकर आगमिक व्याख्यासाहित्य में न केवल उसके तन ढंकने की व्यावस्था की गयी, बल्कि शील सुरक्षा के लिए उसे ऐसे वस्त्रों को पहनने का निर्देश दिया गया, जिससे उनका शील भंग करने वाले व्यक्ति को सहज ही अवसर उपलब्ध न हो। इसी प्रकार शील सुरक्षा की दृष्टि से जैन धर्म में नारी की भूमिका:32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003244
Book TitleJain Dharm me Nari ki Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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