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कारण है । किन्तु यह अनेकता धार्मिक असहिष्णुता या विरोध का कारण नहीं सकतो। आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिसमुच्चय में धार्मिक साधना की विविधताओं का सुन्दर विश्लेषण प्रस्तुत किया है । वे लिखते हैं -
यद्वा तत्तन्नयापेक्षा तत्कालादिनियोगतः । ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषापि तत्त्वतः ॥ *
अर्थात् प्रत्येक ऋषि अपने देश, काल और परिस्थिति के आधार पर भिन्न-भिन्न धर्ममार्गों का प्रतिपादन करते हैं। देश और कालगत विविधताएँ तथा साधकों की रूचि और स्वभावगत विविधताएँ धार्मिक साधनाओं की विविधताओं का आधार है, किन्तु इस विविधता को धार्मिक असहिष्णुता का कारण नहीं बनने देना चाहिए । जिस प्रकार एक ही नगर को जाने वाले विविध मार्ग परस्पर भिन्न-भिन्न दिशाओं में स्थित होकर भी विरोधी नहीं कहे जाते हैं; एक ही केन्द्र को योजित होने वाली परिधि से खींची गयी विविध रेखाएँ चाहें बाह्य रूप से विरोधी दिखाई दे, किन्तु यथार्थतः उनमें कोई विरोध नहीं होता है; उसी प्रकार परस्पर भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले धर्मकर्म भी वस्तुत: विरोधी नहीं होते। यह एक गणितीय सत्य है कि एक केन्द्र से योजित होने वाली परिधि से खींची गयी अनेक रेखएँ एक-दूसरे को काटने की क्षमता नहीं रखती हैं; क्योंकि उन सबका साध्य एक ही होता है। वस्तुत: उनमें एक-दूसरे को काटने की शक्ति तभी आती है जब वे अपने केन्द्र का परित्याग कर देती हैं । यही बात धर्म के सम्बन्ध में भी सत्य है। एक ही साध्य की ओर उन्मुख बाहर से परस्पर विरोधी दिखाई देने वाले अनेक साधना मार्ग तत्त्वत: विरोधी नहीं होते है । यदि प्रत्येक धार्मिक साधक अपने अहंकार, राग-द्वेष और तृष्णा की प्रवृत्तियों को समाप्त करने के लिए, अपने काम, क्रोध और लोभ के निराकरण के लिए, अपने अहंकार और अस्मिता के विसर्जन के लिए साधनारत है, तो फिर उसकी साधना पद्धति चाहे जो हो, वह दूसरी साधना पद्धतियों का न तो विरोधी होगा और न ही असहिष्णु । यदि आर्थिक जीवन में साध्यरूपी अनेकता रहे तो भी वह संघर्ष का कारण नहीं बन सकती । वस्तुत: यहाँ हमें यह विचार करना है कि धर्म और समाज में धार्मिक असहिष्णुता का जन्म क्यों और कैसे होता है ?
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वस्तुत: जब यह मान लिया जाता है कि हमारी एकमात्र साधना पद्धति ही व्यक्ति को अन्तिम साध्य तक पहुँचा सकती है तभी धार्मिक असहिष्णुता का जन्म होता है ।
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धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्मः 6
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