________________
-
आचारांग सूत्र
ठंडा कर देने लगे तो भिन्नु न ले, परन्तु पहिले ही से कह दे कि ऐसा किये बिना ही आहार देना हो तो दो। [३१]
मुनि गन्ने की गांठ, गांठ वाला भाग, रस निकाल लिये हुए टुकडे, गन्ने का लम्बा हिस्सा या उसका टुकड़ा अथवा मूंग आदि की बझी हुई फली आदि वस्तुएँ जिनमें खाने का कम और छोड़ने का अधिक हो, को न ले । [२८]
(भिन्नु ने खांड मांगी हो और ) गृहस्थ (भूल से) समुद्रनमक या बीड़ नमक लाकर दे, और भिन्तु को मालुम हो जाय तो न ले । पर यदि गृहस्थ उसको जल्दी से पात्र में डाल दे और बाद में भिन्नु को मालुम हो जाय तो वह दूर चले जाने के बाद भी वापिस उस गृहस्थ के पास भावे और उससे पूछे कि, तुमने मुझे यह जानते हुए दिया या अजानते हुए ? यदि वह कहे कि, "मैं ने जानते हुए तो नहीं दिया पर अब राजी से आपको देता हूँ।" इस पर वह उसको खाने के काम में ले ले । यदि बढ़े तो अपने पास के समान धर्मी मुनियों को दे दे। ऐसा संभव न हो तो अधिक श्राहार के नियम से उसको निर्जीव स्थान पर डाल दे । [१६]
जिस आहार को गृहस्थ ने एक या अनेक निर्ग्रन्थ साधु या साध्वी के उद्देश्य से या किसी. श्रमणब्राह्मण आदि के उद्देश्य से जीवों (छःकाय) की हिंसा करके तैयार किया हो, खरीदा हो, मांग लाया हो, छीन लाया हो, (दूसरे के हिस्से का) संमति बिना लाया हो, मुनि के स्थानपर घर से, गांव से ले जाकर दिया हो तो उस सदोष आहार को भिक्षु कदापि न ले।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org