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विमोह
उड़ा तक नहीं । वे सब देह को ही पीड़ा स्थान से दूसरे स्थान दुःख पाने वाला वह भिक्षु
कर मुनि एक हिंसा आदि से अनेक प्रकार के बन्धनों से दूर समाधि से आयुष्य को पूर्ण करे लिये यही श्रेय है । [ १०. ११]
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देते हैं, ऐसा समझ
परन्तु क्रोध, सहन करे ।
पर न जावे; सब कुछ वह भिक्षु
रहने वाला
। संयमी और ज्ञानी
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: ४ :
संयम - पालन के
अशक्य
यदि भिक्षु को ऐसा जान पड़े कि, मैं अब लिये इस शरीर को धारण करने में अशक्त हूँ, तब वह क्रमशः अपना आहार कम करता रहे, कषायों से निवृत्त हो और समाधि युक्त होकर पटिये के समान स्थिर रहे; फिर यदि एकदम हो जाय तो गांव या नगर में जा कर घास मांग लावे । उसको लेकर एकान्त में जहां जीव-जन्तु, पानी, गीली मिट्टी कांई, जाले न हो ऐसे स्थान को बराबर देख-भाल कर वहाँ घास बिछावे । उस पर बैठ कर 'इत्वरित मरण' स्वीकार करे । फिर, अनाहार से रहते हुए जो दुःख आवें, उनको सहन करे पर दूसरों के पास से किसी प्रकार का उपचार न करावे । ऐसा करने पर यदि इन्द्रियाँ अकड़ जावें तो उनको हिलावे -डुलावे । ऐसा करते हुए भी वह अगी, अचल और समाहित कहलाता है । मन स्वस्थ रहे और शरीर को कुछ श्रवलम्बन मिले तो उसके लिये वह चंक्रमण करे या शरीर को संकोचे या फैलावे, पर हो सके तो जड़ की तरह स्थिर रहे । थका हुआ भित्तु इधर-उधर करवट बदले या अपने अंगों को सिकोड़ ले । बैठते २ थकने पर अन्त में सो भी जाय । [ २२१-२२२, १२-१६ ]
इस प्रकार मनुष्यों के
इस प्रकार के अद्वितीय मरण को स्वीकार करके अपनी इन्द्रियों को वश में रखे । शरीर को सहारा देने के लिये जो पाटिया लिया
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