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________________ - - - wwvvvvvvv कर्मनाश __ ऐसे प्रा पड़ने वाले दुःख (परिषह) दो प्रकार के होते हैंअनुकूल और प्रतिकूल । ऐसे समय पैदा होनेवाले संशयों, को त्याग कर संयमी शान्तदृष्टि रहे । सुगन्ध हो या दुर्गन्ध हो अथवा भयंकर प्राणी कष्ट दे रहे हों, तो भी वीर को इन दुःखों को सहन करना चाहिये; ऐसा मैं कहता हूँ। मुनि को कोई गाली दे, मारे, उसके बाल खींचे या निंदा करे तो भी उसको ऐसे अनुकूल या प्रतिकूल प्रसंगों को समझ कर सहन करना चाहिये । [१८३-१८४] घरों में, गांवों में, नगरों में, जनपदों में या इन सब के बीच में विचरते हुए, संयमी को हिंसक मनुष्यों की तरफ से अथवा अपने श्राप ही अनेक प्रकार के दुःख पा पड़ते हैं उन्हें वीर को सम भाव से सहन करना चाहिये। [१६] जो भिन्तु वस्त्रहीन है, उसको ‘मेरा वस्त्र पुराना हो गया है, मुझे दूसरा वस्त्र या सूई-डोरा मांगना पड़ेगा, और उसको ठीक करना होगा' ऐसी कोई चिन्ता नहीं होती । संयम में पराक्रम करते हुए उस भिक्षु को वस्त्रहीन रहने के कारण घास चुभता है, ठंड लगती है, गरमी लगती है, डांस-मच्छर काटते हैं-इस प्रकार अनेक दुःख सहन करता हुश्रा और उपकरणों के भार से रहित वह अवस्त्र मुनि तप की वृद्धि करता है। भगवान् ने इसको जिस प्रकार बतलाया है, उसी प्रकार समझना चाहिये । [१५] | अकेला फिरता हुआ वह मुनि छोटे कुलों में जाकर निर्दोष भिक्षा प्राप्त करता हुआ विचरे। वस्त्रहीन रहने वाला मुनि अधपेट भोजन करे । संयमी और ज्ञानी पुरुषों की भुजाएँ पतली होती हैं, उनके शरीर में मांस और लोही कम होते हैं। [१८३-१८४, १८६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003238
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherJain Shwetambar Conference Mumbai
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size6 MB
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