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लोकसार
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मैंने सुना है और अनुभव किया है कि बन्धन से छूटना प्रत्येक के अपने हाथ में है। इस लिये, ज्ञानियों के पास से समझ कर, हे परमचक्षुवाले पुरुष ! तू पराक्रम कर । यही ब्रह्मचर्य है ऐसा मैं कहता हूं। [ १५० ]
संयम के लिये उद्यत हुश्रा मनुष्य, ऐसा जानकर कि प्रत्येक को अपने कर्म का सुख-दुःख रूपी फल स्वयं ही भोगना पड़ता है, प्रमाद न करे । लोक- व्यवहार की उपेक्षा करके सब प्रकार वे संगों से दूर रहने वाले मनुष्य को भय नहीं है। [ १४६, १४६ ]
कितने ही मनुष्य ऐसे होते हैं जो पहिले सत्य के लिये उद्यत होते हैं और पीछे उसी में स्थिर रहते हैं; कितने ही ऐसे होते हैं जो पहिले उद्यत होकर भी पीछे पतित हो जाते हैं। ऐसे असंयमी दूसरों से ऐसा कहते हैं कि अविद्या से भी मोक्ष मिलता है। वे संसार के चक्कर में फिरते रहते हैं। तीसरे प्रकार के ऐसे होते हैं जो पहिले उद्यत भी नहीं होते और पीछे पतित भी नहीं होते । ऐसे असंयमी लोक के स्वरूप को जानते हुए भी संसार में ही डूबे रहते हैं। ऐसा जानकर मुनिओंने कहा है कि बुद्धिमान को ज्ञानी की आज्ञा को मानकर स्पृहा रहित, सदा प्रयत्नशील होकर तथा शील और संसार का स्वरूप सुनकर, सम्झ कर काम रहित और द्वन्द्वहीन बनना चाहिये। [१५२-१४५,१५३ ]
हे बन्धु ! अपने साथ ही युद्ध कर, बाहर युद्ध करने से क्या होगा ? खुद के सिवाय युद्ध के योग्य दूसरी वस्तु मिलना दुर्लभ है। जिन प्रवचन में कहा है कि जो रूप आदि में आसक्त रहते हैं, वे ही हिंसा में श्रासक्त रहते हैं। कर्मका स्वरूप समझ कर किसी की
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