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________________ सुख और दुःख हे वीर! तू ऐसा बनेगा तो सब दुखों से मुक्त हो सकेगा। [१०५, १०८] संयम को उत्तम मानकर ज्ञानी कभी प्रमाद न करे। अात्मा की रक्षा करने वाला वीर पुरुष संयम के अनुकूल मिताहार के द्वारा शरीर को निभावे और लोक में सदा परदर्शी, एकान्तवासी, उपशांत समभावी, सहृदय और सावधान होकर काल की राह देखता हुआ विचरे । [११६ १११] एक-दूसरे की शर्भ रखकर या भय के कारण पापकर्म न करने वाला क्या मुनि है ? सच्चा मुनि तो समता को बराबर समझ कर अपनी आत्मा को निर्मल करने वाला होता है। [११५] क्रोध मान, माया और लोभ को छोड़कर ही संयमी प्रवृत्ति करे। ऐसा हिंसा को त्याग कर संसार का अन्त फर चुकनेवाले दृष्टा कहते हैं। जो एक को जानता है, वही सबको जोगता है; और जो सबको जानता है, दही एक को जानता है। जो एक को झुकाता है, वही सबको झुकाता है; और जो सबको झुकाता है, वही एक को झुकाता है। इसका मतलब यह है कि जो क्रोध आदि चार कषायों में से एक का नाश करता है, वही बाकी के तीनों का नाश करता है, और जो बाकी के तीनोंका नाश करता है, वही एक का नाश करता है। [१२१, १२४] ___जो क्रोधदर्शी है, वही मानदर्शी है; जो मानदर्शी है वही मायादर्शी है; जो.मायादर्शी है, वही लोभदर्शी है; जो लोभदर्शी है, वही रागदर्शी है; जो रागदर्शी है, वही द्वेषदर्शी है; जो द्वेषदर्शी है, वही मोहदी है; जो मोहदी है, वहीं गर्मदर्शी है; जो गर्भदर्शी है, वही जन्मदर्शी है; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003238
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherJain Shwetambar Conference Mumbai
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size6 MB
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