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________________ - ann - - o unMArwwwwwwwwwwwvvvvererarwwwwwetarvasnrn प्राचारांग सूट अथवा, असंयम के कारण अनेक बार उस को रोग होते हैं । या जिसके साथ वह बहुत समय से रहता आया हो वे अपने मनुष्य उसे पहिले ही छोड कर चले जाते हैं । इस प्रकार के सुख के कारण नहीं बन सकते और न दुखों से ही बचा सकते हैं और न वह ही उनको दुखों से बचा सकता हैं। प्रत्येक को अपना सुख-दुःख खुद ही भोगना पडता हैं । [२] . उसी प्रकार जो उपभोग सामग्री उसने अपने सगेसम्बन्धियों के साथ भोगने के लिये बड़े प्रयत्न से अथवा चाहे जैसे कुकर्म करके इकट्ठी की हुई होती है, उसको भोगने का अवसर प्राने पर या तो वह रोगों से घिर जाता है या वे सगे-सम्बन्धी ही उसको छोड़कर चले जाते हैं या वह स्वयं ही उनको छोड कर चला जाता है । [६७] __ अथवा, कभी उसको अपनी इकट्ठी की हुई संपत्ति को बांटना पड़ता है, चोर चुरा ले जाते हैं, राजा छीन लेता है, या वह खुद ही नष्ट हो जाती है, या आग में जल जाती है। यों सुख की प्राशा से इकट्ठी की हुई भोग सामग्री दुःख का ही कारण हो जाती हैं किन्तु .. मोह से मूढ़ हुए मनुष्य इसको नहीं समझते [३] इस प्रकार कोई किसी की रक्षा नहीं कर सकता और न कोई किसी को बचा ही सकता है । प्रत्येक को अपने सुख-दुख खुद ही भोगने पड़ते हैं । जब तक अपनी अवस्था मृत्युसे घिरी हुई नहीं है, कान आदि इन्दियों, स्मृति और बुद्धि श्रादि बराबर हैं तब तक अवसर जान कर बुद्धिमान् को अपना कल्याण साध लेना चाहिये । [६८-७१] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003238
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherJain Shwetambar Conference Mumbai
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size6 MB
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