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लोकविजय
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श्रादि में प्रीति रखने वाले तथा स्त्रियों में अत्यन्त आसक्ति वाले उन लोगों को ऐसा ही दिखाई देता है कि यहां कोई तप नहीं है, दम नहीं है और कोई नियम नहीं है । जीवन और लोगों की कामना वाले वे मनुष्य चाहे जो बोलते हैं और इस प्रकार हिताहित से शून्य बन जाते हैं । [७६ ]
ऐसे मनुष्य स्त्रियों से हारे हुए होते हैं । वे. तो ऐसा ही हीं मानते हैं कि स्त्रियों ही सुख की खान हैं। वास्तव में तो वे दुःख, मोह, मृत्यु, नरक और नीच गति (पशु) का कारण हैं। [४] ___काम भोगों के ही विचार में मन, वचन और काया से मन रहने वाले वे मनुष्य अपने पास जो कुछ धन होता है, उसमें अत्यन्त आसक्त रहते हैं और द्विपद (मनुष्य) चौपाये (पशु) या किसी भी जीव का वध या आघात करके भी उसको बढाना चाहते हैं । [८०
परन्तु मनुष्य का जीवन अत्यन्त अल्प है । जब आयुष्य मृत्यु से घिर जाता है, तो आंख, कान आदि इन्द्रियों का बल कम होने पर मनुष्य मढ़ हो जाता है । उस समय अपने कुटुम्बी भी जिनके साथ वह बहुत समय से रहता है उसका तिरस्कार करते हैं। वृद्धावस्था में हंसी, खेल, रतिविलास और श्रृंगार अच्छा नहीं मालुम होता । जीवन और जवानी पानी की तरह बह जाते हैं: । उस समय वे प्रियजन मनुष्य की मौत से रक्षा नहीं कर सकते । जिन माता पिता ने बचपन में उसका पालन-पोषण किया था और बड़ा होने पर वह उनकी रक्षा करता था । वे भी उसको नहीं बचा सकते । [६३-६५ ]
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