SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८] अाचारांग सूत्र नहीं कर सकता है और न उनको बचा सकता है। प्रत्येक को अपने सुख और दुःख खुद को ही भोगने पड़ते हैं। इस लिये, जब तक अवस्था मृत्यु के निकट नहीं है और कान आदि इन्द्रियों का बल और प्रज्ञा, स्मरणशक्ति आदि ठीक है तबतक अवसर जान कर बुद्धिमान मनुष्य को अपना कल्याण साध लेना चाहिये । .... विमुत्ता हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो । लोभ अलोमेण दुगुञ्छमाणे लद्धे कामे नोभिगाहइ। (२:७४) जो मनुष्य विषयों को पार कर गये हैं, वे ही वास्तव में मुक्त हैं । अकाम से काम को दूर करने वाले वे, प्राप्त हुए विषयों में लिप्त नहीं होते। समयं मूढे धम्मं नाभिजाणइ । उयाहु वीरे अप्पमाओ महामोहे ! अलं कुसलस्स पमाएणं सन्तिमरणं संपेहाए, भेउरधम्म संपेहाए (२:८४) कामभोगों में सतत मूढ रहने वाला मनुष्य धर्म को पहिचान नहीं सकता । वीर भगवान ने कहा है कि महामोह में बिलकुल प्रमाद न करे । शांति के स्वरूप और मृत्यु का विचार करके और शरीर को नाशवान् जान कर कुशल मनुष्य क्यों प्रमाद करे ? ... सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, : दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा, पियजीविणो, जीविउकामा, सव्वेसिं जीवियं पियं । सएण विप्पमाएणं पुढो वयं पकुव्वइ, जसिमे पाणा पचहिया, पडिलेहाए नो निकरणाए, एंस परिन्ना पवुच्चइ कम्मोवसन्ती । से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं. समुहाय तम्हा पावकम् नेव कुजा न कारवेज्जा । (२: ८०,९६-७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003238
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherJain Shwetambar Conference Mumbai
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy