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________________ भावनाएँ [ १३१ तीसरी भावना - निर्ग्रन्थ अपनी भाषा की जांच करे; उसको ( मन के समान ही ) पापयुक्त, सदोष और कलह, द्वेष और परिताप युक्त न होने दे । चौथी भावना - निर्ग्रन्थ वस्तुमात्र को बराबर देखभाल कर, साफ करके ले या रखे क्योंकि असावधानी से लेने रखने में जीवों की हिंसा होना संभव है । • पांचवीं भावना-निर्ग्रन्थ अपने श्राहार- पानी को भी देखभालकर काम में ले क्योंकि असावधानी से होने में जीवजन्तु की हिंसा होना संभव है । निर्ग्रन्थ के इतना करने पर ही, यह कह सकते हैं कि उसने महाव्रत को बराबर स्वीकार किया, पालन किया, कार्यान्वित किया या जिनों की आज्ञा के अनुसार किया । दूसरा महाव्रत - मैं सब प्रकार के श्रसत्यरूप वाणी के दोष का यावज्जीवन त्याग करता हूँ । क्रोध से, लोभ से, भय से या हंसी से, मैं मन, वचन और काया से असत्य नहीं बोलूं, दूसरों से न बुलाऊं और बोलते हुए को अनुमति न दूं । ( मैं इस पाप से...... श्रादि पहिले व्रत के अनुसार | ) इस महाव्रत की पांच भावनाएँ ये है पहिली भावना - निर्ग्रन्थ विचार कर बोले क्योंकि बिना विचारे बोलने से असत्य बोलना सम्भव है I दूसरी भावना - निर्ग्रन्थ क्रोध का त्याग करे क्योंकि क्रोध में त्यो सम्भव है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003238
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherJain Shwetambar Conference Mumbai
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size6 MB
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