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१३.]
आचारांग सूत्र
सम्पूर्ण (सब वस्तुओं का) प्रतिपूर्ण ( सब वस्तुओं के सम्पूर्ण भावों का), अव्याहत (कहीं न रुकनेवाला), निरावरण, अनन्त और सर्वोत्तम ऐसा केवल ज्ञानदर्शन उत्पन्न हुआ ।
अब भगवान् अर्हत् (त्रिभुवन की पूजा के योग्य) जिन (रागद्वेषादिको जीतने वाले), केवली, सर्वज्ञ और समभावदर्शी हुए ।।
भगवान् को केवल क्षान हुआ, उस समय देव-देवियों के आने जाने से अंतरिक्ष में धूम मची थी। भगवान् ने पहिले अपने को और फिर लोक को देखभाल कर पहिले देवलोगोंको धर्म कह सुनाया और फिर मनुष्यों को। मनुष्यों में भगवान् ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्यों को भावनाओं के साथ पांच महाव्रत इस प्रकार कह सुनाये:
पहिला महाव्रत-मैं समस्त जीवों की हिंसा का यावज्जीवन त्याग करता हूँ। स्थूल, सूक्ष्म, स्थावर या अस किसी भी जीवकी मन, वचन और काया से मैं हिंसा न करूँ, न दूसरों से कराऊँ, और करते हुए को अनुमति न दूं । मैं इस पाप से निवृत्त होता हूँ, इसकी निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ, और अपने को उससे मुक्त करता हूँ।
इस महावत की पांच भावनाएं ये हैं
पहिली भावना-निर्ग्रन्थ किसी जीव को श्राघात न पहूंचे, इस प्रकार सावधानीसे (चार हाथ आगे दृष्टि रख कर) चले क्योंकि असावधानी से चलनेसे जीवों की हिंसा होना संभव है।
दूसरी भावना-निर्ग्रन्थ अपने मन की जांच करे, उसको पापयुक्त, सदोष, सक्रिय, कर्मबन्धन करनेवाला और जीवों के वध, छेदन भेदन और कलह, द्वेष या परिताप युक्त न होने दे।
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